SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपरसें तथा कितनेक पुराने स्तंभों उपरसें जो जूने जैनमत सबंधी लेख अपनी स्वच्छ बुद्धिके प्रभावसें वांचके प्रगट कर है, और अंग्रेजी पुस्तकों में छापके प्रसिद्ध करे है तिन जूने लेखां सें निसंदेह सिद्ध होता है कि, श्री महावीरजीसें लेके श्री देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण तक जैन श्वेतांबर मतके आचार्य कंठाग्र ज्ञान रखने में बहुत उद्यमी और आत्मज्ञानी थे, इस वास्ते हम जैन मतवाले पूर्वोक्त यूरोपीयन विद्वानोका बहुत उपकार मानते है, और मुंबई समाचार पत्रवालाभी तीन लेखोंकों बांचके अपने संवत् १८४४ के वर्षाके चार मासके एक प्रतिदिन प्रगट होते पत्रमें लिखता है, ज़ेनमतका कल्पसूत्र कितनेक लोक कल्पित मानते थे, परंतु इन लेखोंसें जैनमतका कल्पसूत्र सच्चा सिद्ध होता है. प्र.१५७. वे लेख कौनसे है, जिनका जिकर आप उपले प्रश्नोत्तरमें लिख आए है, और तिन लेखों सें तुमारा पूर्वोक्त कथन क्यों कर सिद्ध होता है. उ. वे लेख जैसे डाक्टर बूलर साहिबने सुधारके लिखे है, और जैसे हमकों गुजराती भाषांतरमे भाषांतर कर्ताने दीये है तैसेंही लिखते है, येह पूर्वोक्त लेख सर ए. कनिंगहामकें आर्चिउलोजिकल (प्राचीन कालकी रही हुइ वस्तुयों सबंधी) रिपोर्टका पुस्तक ८ आठमेमें चित्र १३-१४ तेरमे चौदवें तक प्रगट करे हुए मथुरांके शिला लेख तिनमें केवल जैन साधुयोंका संप्रदाय आचार्योकी पंक्तियां तथा शाखायों लिखी हुए है, केवल इतनाही नही लिखा हुआ है, किंतु कल्पसूत्रमें जे नव गण (गच्छ ) तथा कुल तथा शाखायों कही है, सोभी लिखी हुई है, इन लेखोंमे जो संवत् लिखा हुआ है, सो हिंदुस्थान और सीथीया देशके वीचके राजा कनिश्क १ हविश्क २ और वासुदेव ३ इनके समय संवत् लिखे हुए है और अब तक इन संवतोकी शरुआत निश्चित नही हुइ है, तो भी यह निश्चय कह सकते है कि येह हिंदुस्थान और सीथीया देशके राजायोंका राज्य इसवी सनके प्रथम सैकेके अंतसें और दूसरे केके पहिले पौणेभागसें कम नही तरा सकते है, क्योंकि कनिश्क सन इशवी सनके ७८ वा ७९ मे वर्षमें गद्दी उपर बैठा सिद्ध हुआ है, और कितनेक लेखोंमे इन राजायोंका संवत् नही है, सो लेख इन राजायोंको राज्यसें पहिलेंकी है, ऐसे डाक्तर बूलर साहिब कहता है. Jain Education International ८९ For Private & Personal Use Only ॐॐ www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy