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________________ SOCTestsit: tasvAccmmeences मायाकषाय परम उपकारी आचार्य भगवान श्री उद्योतन सूरीश्वर महाराजने ही देवी के कहने , से 'श्री कुवलमाला चरित्र' की रचना की। इस में हम यह देख आये हैं कि चरित्र नायक राजकुमार श्री कुवलयानन्द दिव्य घोडे के द्वारा जंगल में छोड गया, दैवी वाणी से वह आगे बढ़ा और एक कोस आगे उसने एक ऐसे महायोगी को देखा जिन की सिद्ध अहिंसा के फलस्वरुप उधर के भूभाग में वैरी पशु जैसे सिंह और हिरन, साँप और मोर. आदि भी मैत्रीभाव, प्रेम, सौम्यता, और निर्भयतापूर्वक साथ घुमते थे। साथ ही यह भी देखा कि ऐसे महायोगी-महर्षि के पास एक देवता और एक सिंह बैठा हुआ है। वहाँ कुवलयानन्द को महर्षि 'वह घोडा कौन है ? तुझे उठाकर आकाश में क्यों उडा?' आदि का वृत्तान्त कह रहे हैं। इस अधिकार में यह बात आयी है कि पुरन्दरदत्त नामक एक राजा को जैनधर्म की प्राप्ति कराने के शुभ हेतु से उसका प्रधानमंत्री वासव तरस रहा है। इस बीच वसन्त ऋतु का आगमन होने पर उसे देखने के बहाने राजा को उद्यान में अवधिज्ञानी महर्षि श्री धर्मनन्दन आचार्य के पास ले आता है। राजा की जिज्ञासा के कारण आचार्य महाराज श्री अपने वैराग्य का कारण बताते हुए संसार की चारों गतियों की भीषण यातनाओं का वर्णन करते है। मंत्री द्वारा ऐसे संसार का कारण पूछे जाने पर आचार्य भगवान् मुख्य कारणों में क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह (अज्ञान) को बताकर इन के खेल कितने भयानक हैं, इस विषय पर वहीं बैठे हुए व्यक्त्यिों की जीवन-कथाएँ कहते हैं । इन में हम क्रोध पर चंडसोम का और मान पर म. भट का जीवन-वृत्तान्त देख आये हैं । अब माया पर उसका स्वरुप और उसकी भयानकता बताने के साथ, मायादित्य का कैसा जीवन-वर्णन करते हैं सो देखें। माया उव्वेययरी, सज्जणसत्थम्मि निंदिया माया । माया पावुप्पत्ती वंकविवंका भुयंगीव्व ॥ अर्थात् माया उद्वेग करानेवाली है। सज्जनों के वर्ग में माया निदित है। माया से पापों की सृष्टि होती है, माया नागिन की तरह अत्यन्त वक्र है। माया माता कैसे ? : 'माया' शब्द के प्राकृत भाषा में दो अर्थ हैं एक माया, और दूसरा माता। अतः शास्त्र माया को संसार की माता कहते हैं। माया संसार के अनेक भवरुपी बच्चों को जन्म देती है, इसलिए माता है। वैसे ही, माता जिस तरह बच्चों के अवगुणों-दोषों को ढंक देती है, उस तरह माया जीव के दोषों को ढंकती है। इन दो अपेक्षाओं से माया माता के समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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