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________________ ही न ? इसी तरह इतने उत्साह से घर-गृहस्थी जमायी सो अब बैठ कर रोने के लिए ही न? इससे ता मर जाऊँ ताकि रो रो कर जिन्दगी न बितानी पड़े' यह सोच कर पिता वीरभट ने भी कुएँ में छलाँग लगायी। धैर्य और विवेक दुर्लभ क्यों ?: कहो कि वीरभट उम्र में बुजुर्ग ओर मर्द तो उसमें भी विवेक न रहा? धीरज रहा? धीरज कहाँ से लाए? क्योंकि अधिकांश में अधीरता से भरी दुनिया के बीच रहा है, अतः जैसा देखता है वैसा सीखता है। इस न्याय के अनुसार अवसर पड़ने पर मन में अधैर्यअधीरता ही आ खड़ी होगी न ? पूछिये कि - पागल दुनिया के बीच कैसे बचना ?: प्र०. यों तो हम सब ऐसी ही दुनिया में रह रहे हैं, तो क्या धैर्य आए ही नहीं ? सदा के लिए ललाट में अधैर्य ही लिखा है ? उ०. अकेला अधैर्य ही क्यों ? दूसरे अनेकानेक दोष-दुष्कृत्य भी ललाट में लिखे हुए हैं । लेकिन देखना ये सब हैं असावधान के लिए ! हाँ जो सावधान है, और जिसने समझ रखा है कि दुनिया में ज्यादातर तो अधीरता आदि दोष ही और व्यर्थ आक्रन्द आदि दुष्कृत्य ही और अध: पतन ही देखने मिलेंगे, किन्तु यदि तुम इनकी तरह अध: पतन नहीं चाहते, और विकास साधन चाहते हो तो - (१) दुनिया की इस रीतिनीति को पागलपन ही मानो, और (२) अपने लिए धैर्यादि गुणों का ही विकास करो, तथा (३) बेकार का रोना छोड़कर कर्म के नाटक का चिन्तन आदि सत्प्रवृत्ति ही जारी रखो। (४) दुनिया की यह पागल स्थिति देख देख कर, दुनिया पर दया करने के साथ साथ तुम अपनी सावधानी पूर्ण बुद्धि को द्रढ करते जाओ। (५) गुणों और सत्कृत्यों का पक्षपात प्रबल बनाते रहो । जिसने ऐसा समझ रखा है वह तो जो दिखा सो सीखनेवाला न बन कर विवेक पूर्वक सीखने वाला बना रहेगा । दुनिया में चलनेवाले उलटे खेल देख कर तो उसे ऐसा ही लगेगा कि, 'यह संसार ही ऐसा है, कि अज्ञानी ऐसे ही विपरीत आचरण करें।' प्र०. क्या सारी दुनिया दीवानी है? उ०. अधीर क्यों होते हो? यदि ऐसा न होता तो अधिकांश जगत कभी का जन्ममरण की आपत्ति को पार कर गया होता, लेकिन उलटी चाल में ही पिटकर मरता है। वैसे दुनिया में ही कुछ अच्छे भी हैं, लेकिन तुम्हें बहुमति को देखना है न ? अत: अच्छे पर निगाह ही कहाँ पड़ती है ? नहीं तो वे अच्छे तुम्हें उदाहरणरुप न बनें । उन्हें देखकर धैर्यादि को बढ़ाने का प्रोत्साहन न मिले? दुनिया को अज्ञान-पागल कह कर उसे गाली देने का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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