SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ झूठा हठ और मिथ्यात्व तथा कषाय के घर की हठ पकड़ रखने से मन कठोर और भारी बनता है । अभिनिवेश दुर्गुण है: : 1 अभिमान, मानाकांक्षा, वैर-विरोध, तीव्र लोभ..... आदि कषाय गलत हठ पकड़ने को बाध्य करते हैं, मार्गानुसारी के गुणों में इस दुर्गुण के त्याग रुप अभिनिवेश का त्याग करना' यह गुण है | अभिनिवेश का अर्थ है गलत हठ, झूठी पकड़ यह खतरनाक है । राजा नल ने जुए में जीतने की हठ पकड़ी तो दमयन्ती के बहुत मना करने पर भी दाव लगाते लगाते हारते ही गये, हारते ही गये....सो सारा राज्य हार गये, और रानी दमयंती के साथ बीहड वन में भटकना पड़ा । कुछ लोगों का खयाल है कि 'ऐसे किसी तरही की पकड़ न रखें तो जीवन व्यवहार सीधा कैसे चले ? सब हम पर सवार ही हो जाएँ न ?' लेकिन यह देखना चाहिए. की पकड़ की हद होती है । बालक हठ पर चढे तब माता-पिता को अपनी जिद छोड कर कभी झुक जाना पड़ता है, उसे मना लेना पड़ता है। इसी तरह स्वजन स्नेही के साथ अमुक हद तक हठ हो तो नुकसान न भी करे, परन्तु हठ बेहद हो जाय तब नुकसान आ खड़ा होता है। पहले तो जिसके साथ जीवन का सम्बन्ध है उसकी सद्भावना खो देनी होती है । हठ छोड़ने से होनेवाले नुकसान का क्या ? एक सुन्दर समझ : तो....पकड़ छोड़ देने में हठ का त्याग करने में कभी बाद में कुछ नुकसान जैसा प्रतीत हो तो भी मन का समाधान कर लेना चाहिए कि 'यह नुकसान तो कर्म के कारण है। अशुभ कर्म का उदय होता तो एक नहीं तो दूसरा निमित्त पाकर नुकसान होता है, अतः उसे त्याग के साथ जोड़ने की जरुरत नहीं है । यह विचार करना कि 'हमारे और अगले के कर्मानुसार अलग अलग घटनाएँ होती रहती हैं, और होती ही रहेंगी। लेकिन हम यह 'अभिनिवेश त्याग का गुण' अपना लें, कमाई क्यों छोड़ें? और क्यों नाहक मान- कषाय को पोसें ? सही खतौनी का विवेक : गुणोपार्जन पर अधिकार रखना हो तो गुण की रक्षा करते हुए आनेवाली आपत्तियों को अवश्य ही कर्मोदय के खाते में डालिए । ऐसा करने से बाद में पिछड़ना नहीं पड़ेगा । 'दुःख विपत्ति आयी ? सो तो मेरे कर्मों | गुण से दुःख - विपत्ति नहीं आती। वैसे, दोष- दुष्कृत्य से लाभ दिखाई दे तो भी लाभ तो शुभ कर्मोदयं के प्रभाव से है, दोष- दुष्कृत्य के प्रभाव से नहीं। शुभोदय बंद हो जाने के बाद तो दोष- दुष्कृत्य के कारण लातें ही खानी पड़ती हैं। गुणोपार्जन के लिए विचारणा : बाह्य नफा - नुकसान, बाह्य आपत्ति - सम्पत्ति तो शुभाशुभ कर्म के अधीन है। ५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy