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________________ पैदा होते हैं । कानजी स्वामी का मत यह देखना भूल गया कि व्यवहार नय को असद्भूत कहा है सो निश्चय नय की तुलना में वैसे निश्चय नय के धर्म तक पहुँचाने वाला तो व्यवहार धर्म ही है । व्यवहार से रसत्याग करते जाओ तो एक दिन अन्तर से रस का राग छूटेगा। घीकेले और मेवा मिठाई उडाते रहो और मान कर चलो कि 'यह तो पुद्गल पुद्गल को खाता है, आत्मा पर उसका कोई प्रभाव नहीं पडता ।' एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को कुछ नहीं कर सकता इतनी मान्यता मात्र से कोई राग नहीं छूट सकता। राग है इसीसे तो नीरस को छोड रसमय को पकडते हो । इस तरह व्यवहारतः त्याग करते करते अन्तर से नीराग - दशा आएगी; इस द्रष्टि से व्यवहार मार्ग असद्भूत - झूठा नहीं, निकम्मा नहीं, बल्कि सद्भूतसच्चा उपयोगी नय है । कहा है कि उचित व्यवहार आलंबने, स्थिर करी मन परिणाम रे सांसारिक जीवन में कितने ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि व्यवहार का अभ्यास करते करते आन्तरिक मन स्थिर बनता है। लडका जबरदस्ती से भी स्कूल जाने लगे तब बादमें उसके अन्तर में विद्याभ्यास की रुचि जागती है । कुमित्र के आग्रह से पहले बीडी - शराब की आदत डालने के बाद भीतर उसकी तलब पैदा होती है। वैसे ही बाह्य त्याग क्रियाएँ - आदि व्यवहार अपनाने से मन में निश्चय नय के मोक्षमार्ग की झलक उठती है। अर्थ का अर्थ करने से कैसी बड़ी गलती हो जाती है ! मानभट की पत्नी को अर्थ का अनर्थ : ... कहिये, शास्त्र के गलत अर्थ - अघटित अर्थ करने से कितने कितने अनर्थ पैदा होते हैं ? यहाँ भी मानभट के 'श्यामा' शब्द का अनुचित अर्थ कर गाँव की स्त्रियों ने उसकी पत्नी को बहका दिया तो अब देखना कि कैसी अनर्थ की परंपरा शुरु होती है । यहाँ एक प्रश्न उठता है कि प्र. स्त्रीयाँ बेचारी भोली, अतः 'श्यामा' का उन्होंने सीधा अर्थ 'काली' किया । इसमें अनुचित किया कैसे कहलाएगा ? उ. लेकिन यहाँ यह समझना है कि ऐसा अर्थ कर के झूठा बहकावा देने में केवल भोलापन नहीं काम करता, किन्तु उपहास करने - मजाक करने मजाक उड़ाने की मन दुष्ट वृत्तियाँ काम करती हैं । कुमत गढनेवालो ने भी ऐसी मलिन वृत्ति से प्रेरित होकर ऐसे गलत अर्थ - अप्रस्तुत अर्थ किये हैं। इसकी जाँच करें, तो पता चलेगा । Jain Education International मताग्रह के पीछे कौन सी वृत्ति ? शिवभूति ने वस्त्र पात्र से रहित चारित्र का ही आग्रह क्यों रखा ? कारण, उसकां प्रिय रत्नकंबल गुरु ने राग का कारण देख कर फडवा डाला । यह बात उसे खटकी। वह ३२ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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