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________________ लाभ और लोभ दोनों कैसे हैं ? 'जहा लाहो, तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढइ' इस जगत में मनुष्य को जैसे-जैसे लाभ होता जाता है, वैसे-वैसे उसका लोभ बढ़ता जाता है । पुनः लोभ से लाभ को पाने पर, इस लाभ से लोभ बढता है, तो इसका अन्त कब ? कभी अन्त आने वाला ही नहीं । 'इच्छा हु आगाससमा अणंता' इच्छा तो आकाश की तरह अनन्त है, उसका अन्त ही नहीं है । इसीलिये तो इच्छित वस्तु मिला करने से इच्छा का रोग यानी विकार मिटता नहीं, बल्कि बढ़ता . इच्छारोग तो तभी मिटेगा यदि इच्छित को पाने की और इस प्रकार बन्दर जैसे मन की खुजली खुजलाने की दौडधूप करने के बदले कोई अच्छे तात्त्विक विचार करके या त्यागी निर्लोभी किसी महापुरुष के दृष्टान्त को नज़रों के सामने रखकर या लोभ के इस इहलोक - परलोक के भयंकर अनर्थ से भड़ककर इच्छा की खुजली ऐसे ही दबा दी जाय, उसे तृप्त करने की परवाह ही छोड़ दी जाय । पहले तो मन पर दबाव करना पड़ेगा, मन को मनाना पड़ेगा | परन्तु अनेक बार ऐसे कहकहकर उठती हुई इच्छाओं का पोषण न करने से, क्रमशः इच्छाओं का जोर कम होता जाता है । यह अभ्यास अच्छी तरह से आगे बढ़ने पर मन सहज में ही ऐसा बन जाता है कि इच्छा ही नहीं जागेगी । कपिल को स्वयं बोधः कपिल ब्राह्मण ने यह सोचकर देखा कि मैं इतने लोभ में कैसे चढ़ा? ऊहापोह करते हुए उसे पूर्वजन्म का चारित्र याद आया । इच्छाओं से रहित चारित्र जीवन की भव्यता देखी, उसके सामने इच्छाओं से भरे गृहस्थजीवन की गंदगी-अधमता देखकर वहीं पर, उसी क्षण मन से चारित्र लेकर साधु का वेश स्वीकार लिया ! आश्चर्य चकित राजा पूछता है - 'यह क्या ?' कपिल मुनि कहते है: 'जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढइ । दो मासाए कज्जं कोडीए वि न निठिअं ।। - १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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