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________________ इन बाह्य अभ्यन्तर संयोगो पर दृष्टि जाने पर वे अनित्य ही लगेंगे । जब कि आत्मा तो नित्य है, अविनाशी है, उसे ये संयोग किस काम के ? ऐसा आत्मा का स्वाभाविक भाव तैयार हो, तो उसमें आत्मा भावित हुए कहलाती है । वारंवार दिल से अनित्य आदि चिन्तन का अभ्यास करने से आत्मा ऐसी भावित होती है । इसीलिये उन चिन्तनों को भावना कहते हैं। इस प्रकार ज्ञान-दर्शन चारित्र और वैराग्य के प्रखर अभ्यास से आत्मा को भावित कर देना है, जिससे हर साँस में ज्ञानादि घुल-मिल जाते हैं, मन के सहज भाव ज्ञानादिमय बन जाते हैं । इसलिये ऐसे अभ्यास को भी भावना कहते हैं । श्री ऋषभदेव प्रभु ने इस भावनाधर्म की भी साधना की । चारों प्रकार के धर्म की साधना के अन्त में वीतराग सर्वज्ञ बनकर प्रभु ने जगत को भी इस दान - शील-तप भावनामय चतुर्विध धर्म का उपदेश दिया । अपने लिये कौन - सा धर्म आसान है ? चरित्रकार कहते हैं, हमारे जैसे हीन सत्त्ववाले जीव प्रभु के द्वारा साधे गये दानशील तपधर्म से बहुत दूर हैं। क्योकि ऐसा वार्षिक दान देने जितना धन हमारे पास नहीं है; उच्च व्रतमय शील पालने का सत्त्व नहीं है, इसी तरह वैसा प्रबल तपधर्म साधने योग्य शरीर का संघयण नहीं मिला है, परन्तु अनित्यता आदि का सहृदय चिन्तन करने रूप भावनाधर्म सुखपूर्वक किया जा सके, ऐसा है । इसमें तो कोई उतने धन सत्त्व या संघयण की सुविधा हो ही, ऐसा जरूरी नहीं; यह तो मन से साधने की चीज है । संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव बनने का पुण्य उदय में है, इसीलिये चिन्तन-मनन भावना कर सके, ऐसा मन मिला है । इस मन से इन अनित्यादि भावनाओं का चिन्तन करना सरल है, भावनाधर्म सुकर है, आसान है । चरित्रकार महर्षि अब यह बताते हैं कि भावना - धर्म का कितना महत्त्व है ? कितनी आवश्यकता है । भावना धर्म की अति आवश्यकता वे कह रहे हैं कि हमारा चित्त दुनिया के कोलाहल से खींचा हुआ है और यह सदा उल्लासपूर्वक बाह्य के भूसे कूटता रहता है । इसी तरह यह मन मिथ्या बातों में पिरोया हुआ और दूसरे के दोष, कमियों आदि देखते रहता है। इसीलिये बेहतर यही है कि मन को इन सबमें पिरोये रखने के बदले उसे जिनेन्द्र भगवान साधु महात्मा और सत्पुरूषों के गुणगान में सदा जुड़ा हुआ रखें। इस मन से भावनाधर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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