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________________ करने योग्य या उपादेय कैसे कहा जाय ? गुण गाने योग्य तो सिर्फ एक धर्मपुरुषार्थ है; आदरणीय वही है । अर्थ और काम भी धर्म से ही मिलते हैं; सद्गति भी होती है, तो धर्म के ही प्रताप से; और दुःख भरे भवसागर से छूटेंगे, तो भी धर्म के ही पुरुषार्थ से । यह समझाने के लिये चरित्रकार यहाँ धर्म पुरुषार्थ के ही गुण गा रहे हैं । हमारे मन में भी इसकी महत्ता अंकित हो जानी चाहिये । दिल में से एक ही पुकार निकले कि - धर्म तो धर्म ही है । अर्थ- काम की धांधलेबाजी तो पागलपन का दौरा है । धर्म का उद्यम ही मानव भव की सच्ची मानवता है । धर्म का महत्व क्यों ? अर्थ -काम के महत्व में दया-सत्य कहाँ रहते हैं ? यदि धर्म का महत्व न होता, तो अर्थ और काम ही महत्वपूर्ण माने जाते; और यदि ये ही उपादेय हों, साधने योग्य ग्रहण करने योग्य हों, तो फिर जीवो पर दया, सत्य-नीति-प्रामाणिकता, सदाचार, क्षमा-संतोष-नम्नता आदि जरुरी ही नहीं मानी जायेंगी, क्योंकि पैसे कमाने, संभालने, बढ़ाने की मेहनत में ये सब बाधक बनती हैं और काम अर्थात भोग विलस भोगने के लिये भी ये बाधक बनती हैं । आज विटामिन, प्रोटीन - केलोरी के नाम पर अंडे - मांससे बनी दवायें, उनके टॉनिक, पाउडर - सिरप और अन्य कितने ही प्रकार के खाद्य प्रचलित हो गये हैं न ? उनका उपयोग क्यो नहीं करना चाहिए ? उनमें जीवों की क्रूर हिंसा है, इसीलिये न ? उनका उपयोग करने से जीवों के प्रति जो दया का भाव है, वह उड़ जाता है, इसीलिये उनका प्रयोग नहीं करना चाहिये न ? ऐसे खाद्यों का भोगविलास करने के आड़े जीवदया आकर खड़ी रहेगी । यदि धर्म का महत्व न हो, तो इस जीवदया धर्म को बीच में लाकर भोगविलास से क्यों दूर रहना ? मांसाहार का चस्का लगने के बाद यदि दूसरी ओर दयाधर्म की जरुरत ही नहीं है, तो इस चस्के में मनुष्य के मांस की भी राक्षसी भूख लगेगी ! फिर दया, प्रेम, कृतज्ञता, कर्तव्य पालन आदि धमों को एक बाजु रखकर बाप का मन हुआ, तो बेटे का और बेटे का मन हुआ, तो बाप का मांस क्यों खाने नहीं जाएगा ? ऐसी राक्षसी लीला के सामने तो दयादि धर्म ही आड़े आने वाला है । इस प्रकार धर्म का महत्व है । Jain Education International ६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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