SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चहिए कि 'मैं भी ऐसे खेल खेलूँगा तो मेरी भी यह दशा होगी । अतः मैं दुराचरण से दूर भागूँ ।' युवक को इतनी सारी घोर यातना के बाद भी नरकगति क्यों ? युवक को दुःख में भी दुर्दशा: कारण कि वह युवक बेचारा भयानक पीड़ा तो भोग रहा है फिर भी उसका दुर्भाग्य यह है कि उसमें भी उसे पाप का पश्चात्ताप और आत्मनिंदा नहीं सूझती ! उसे तो राजा और उसके कर्मचारियों पर अत्यंत प्रबल रोष होता है, मन ही मन ऐसे सोचता है कि 'ये पापी लोग ! हाय हाय ! मुझे ये आग लगाते हैं ? मेरे हाथ में आ जायें तो इनकी चमड़ी उधेड़ दूँ | ऐसा सोचता है, परन्तु होता कुछ नहीं, उल्टे उसने ही इस तरह नरक का पाथेय ( सामान) इकट्ठा किया; नरक का आयुष्य कर्म उपर्जित किया। भयंकर दुःख पर भी कैसी दुर्दशा ? महामूढ़ता कैसी ? यह तो अपनी ही भूल से आफ़त आयी है ! तो भी व्याकुलता - विह्वलता तथा दूसरे पर द्वेष का पार नहीं । आफत को शांति से नहीं सहना है ! यह महामूढ़ता है या और कुछ ? तो फिर यदि अपनी भूल के बिनाही सामनेवाले के अनाड़ीपन या गलती - गलतफहमी से आफत आवे तो शांति रखने की बात कितनी अधिक मुश्किल ? फिर भी इतना समझ रखिये कि यह दुर्लभ शांति भी सदा सुलभ किये बिना आत्मा का उद्धार नहीं है । गुणस्थानक की उँची सीढ़ियों पर चढ़ना हो तो कषाय- दुर्ध्यान कुविकल्प आदि को शांत करना ही रहा । अन्यथा, कुविकल्प करते रहने से तो कुछ बनेगा नहीं और भवांतर की महादुर्दशा उपस्थित हो जायगी । हमारी भूल हो चाहे न हो, फिरभी अपने पर आयी हई विपत्ति में, यदि हमारा मन बिगड़ गया तो तिर्यंच नरकगति के भयंकर दुःख और दुर्दशा की तैयारी हो जाती है । बिल्ली आदि के भव ही ऐसे हैं कि उनमें दुःख के अलावा बुद्धि भी भयंकर पापपूर्ण होती है । उसमें जन्म लेने मात्र से ही चूहे आदि प्राणियों के प्रति जबरदस्त द्वेष और घातबुद्धि ! कैसा दुःखद है इस भव का पुरस्कार ! कुमार कुवलयचंद्र ने क्या कल्पना की ? ऐसा होते हुए भी यहाँ कुमार कुवलयचन्द्र देख रहा है कि 'ऐसे जंगल में यह १२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy