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________________ ३४ कौशिक बोला, "तपस्वी मुनिराज ! मैं आज उपवास करके भी आपको मेरे हिस्से की भोजन की यह सामग्री अवश्य दूंगा । कृपा करके आप उसे अवश्य ग्रहण करें ।" मुनिप्रवर ने उसका आग्रह देख लिया - जान लिया । उन्होंने गोचरी का स्वीकार किया । कौशिक ने मुनि के पास उपवास का पच्चक्खाण तथा प्राणियों का वध न करने का नियम लिया । स्वयं को मानों राज्य की प्राप्ति हुई हो उतनी उसे प्रसन्नता हुई । इस प्रकार सुंदर कर्मफल (पुण्य) जिसने प्राप्त किया है ऐसा भद्र परिणामी यह कौशिक मरकर चित्रकुट पर्वत पर चित्रपुरी नगरी का चंद्रादित्य नामक राजा हुआ । शुद्ध दया और पुण्य से प्रभावित, रोगरहित, अपने उत्कृष्ट सौंदर्य से कामदेव को भी पराजित करनेवाला... । चंद्रादित्य राजा की कथा कुछ समय व्यतीत हो जाने के बाद उस चंद्रादित्य राजा का शरीर कुष्ट रोग से ग्रस्त हुआ । शरीर का यह भयंकर रोग प्रजा जान पाये यह उसे पसंद नहीं था और उसी कारण से वह पैरों से लेकर गले तक का अपना शरीर सदा कपड़ों से ढंका हुआ रखता था । अब उसके पापों के उदय का = फल प्राप्ति का समय था, फिर भी वह अधिक पाप कर्मबन्ध स्वरूप शिकार करने के लिए सज्ज हुआ था । अपने आदमियों-सेवकों को लेकर वह पहुँच गया वन्य प्राणियों के निवासस्थान वन में । अत्यंत चपल घोड़े पर बैठकर हिरन आदि निर्दोष प्राणियों की हत्या के भावों में डूबा हुआ वह दौड़ रहा था । उसी समय काउस्सग्ग ध्यान में स्थित मुनिवर उसके दृष्टिपथ में आये । राजा ने मुनिवर से पूछा, 'वे हिरन किस दिशा में गये हैं ?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003225
Book TitleNabhakraj Charitra
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorGunsundarvijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, & Story
File Size3 MB
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