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________________ संत राबिया किसी धर्मग्रंथ का अध्ययन कर रही थीं। अचानक उनकी दृष्टि एक पंक्ति पर अटक गई, 'दुर्जनों से घृणा करो।' कुछ देर वे मौन सोचती रहीं, फिर उन्होंने उस पंक्ति को काट दिया। कुछ समय बाद एक संत घूमता-घामता उनके यहाँ आकर ठहरा । उसने कोई धर्मग्रंथ पढ़ने के लिए माँगा। संयोगवश उसे वही धर्मग्रंथ दे दिया गया। उसने वह कटी हुई पंक्ति देखी तो पूछा, "इस पंक्ति को किसने काटा ?'' राबिया ने विनम्र उत्तर दिया, ''मैंने ही।" संत उबल पड़ा, "धर्म के विषय में दखल देना कोई अच्छी बात नहीं है। फिर आपने ऐसा क्यों किया ?" राबिया गंभीर हो गईं, "महात्मन्, एक समय मैं भी स्वीकार करती थी कि दुर्जनों से घृणा करनी चाहिए। किंतु जब मेरे अंतःकरण में प्रेम की बाढ़ उमड़ आती है तो मुझे पता ही नहीं चलता कि घृणा को कहाँ स्थान दूं।" संत निरुत्तर हो राबिया को देखने लगा। अपने में घृणा का होना अपनी कमजोरी की निशानी है। 63 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private Personal Use Only
SR No.003221
Book TitleStory Story
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherK P Sanghvi Group
Publication Year2011
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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