SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 4 : आनंदघन किया। इस समय हीरविजयसूरि को 'जगद्गुरु' का बिरूद दिया गया । अकबर पर अहिंसा की भावना का प्रभाव इतना अधिक हुआ कि एक साल में छः महिने किसी भी तरह की जीवहत्या न करने का हुक्म बाद में जारी किया। हीरविजयसूरि के बाद शांतिचंद्रसूरि और भानुचंद्रसूरि ने अकबर के दरबार में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया । ___ भानुचंद्रसूरि ने शत्रुजय तीर्थयात्रा के लिए आनेवाले यात्रियों पर लागू किया गया कर माफ करने की विनती की और अकबर ने उसका स्वीकार किया। इसके बाद विजयसेनसूरि अकबर के आमंत्रण का मान रखते हुए दिल्ली गये । वहाँ बादशाह के दरबार के 366 ब्राह्मणों को वाद-विवाद में हराया । इसलिए बादशाह अकबर ने विजेयसेनसूरि को 'सवाई हीरविजयसूरि' (हीरविजयसूरि से भी उत्तम) बिरूद दिया । विजयसेनसूरि ने अहमदाबाद के सूबेदार मिर्ज़ा अज़ीज कोका को भी अपने उपदेश से प्रसन्न किया । सिद्धिचंद्रसूरि की शतावधानी शक्ति देखकर बादशाह अकबर ने उनको 'खुशफ हम' की सम्मानपूर्ण पदवी प्रदान की । 'आइने अकबरी' में अकबर के दरबार के विद्वानों की सूचि में आनेवाले 'हरिजीसुर', 'बिजइसेनसुर' और 'भानुचंद' - ये तीन नाम क्रमश: हीरविजयसूरि, विजयसेनसूरि और भानुचंद उपाध्याय के नाम सूचित करते हैं। श्री विजयसेनसूरि की गद्दी पर आये श्री विजयदेवसूरि की तपस्या से प्रभावित होकर बादशाह जहाँगीर ने मांडवगढ़ में उन्हें “जहाँगीरी महातपा” का बिरूद दिया । उपाध्याय विवेकहर्षने कच्छ के राजा भारमल्ल (ई. स. 1586 से 1632) को उपदेश दिया और राज्य में अहिंसा की भावना का प्रसार किया । इस समय के दौरान अहिंसा के प्रवर्तन में, जजियाकर दूर करने के क्षेत्र में तथा धर्मतीर्थों की रचना करने एवं संघ निकाल ने के क्षेत्र में जैनधर्मियों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । तपागच्छ के श्री विजयदेवसूरि और विजयप्रभसूरि के समय में धर्मप्रवृत्ति और धर्ममहोत्सव होते रहे । इसके बाद तपागच्छ में कुछ कारणों से दो आचार्यों की आवश्यकता महसूस होने पर श्री विजयदेवसूरि और श्री विजयआनंदसूरि को गच्छाधिपति बनाया गया, लेकिन आगे चलकर इसमें से तपागच्छ के दो विभाग बन गए । एक शाखा 'देवसुर' और दूसरी शाखा 'अणसुर' के रूप में पहचानी जाती । श्री विजयसिंहसूरि के शिष्य श्रीमद सत्यविजयजी ने सरिपद का स्वीकार करने के बदले साधुसमाज में व्याप्त आचारशिथिलता को दूर करने के लिए क्रियोद्धार करने की अनुमति गुरुजी से प्राप्त की । तीव्र वैराग्य अपनाते हुए श्रीमद् सत्यविजयजी ने धर्मप्रभावना के लिए प्रयत्न किये । हालाँकि उस समय के समाजने उन्हें उत्साहपूर्ण प्रतिभाव नहीं दिया । इसमें उपाध्याय यशोविजयजी ने पं. सत्यविजयजी का साथ दिया । यही सत्यविजयजी आनंदघनजी के बड़े भाई थे, ऐसा उल्लेख मिलता है । इस तरह सत्यविजयजी, आनंदघनजी और यशोविजयजी समकालीन थे। आनंदघनजी के समय की जैन धर्म की परिस्थिति का विचार करें, तो तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003220
Book TitleBhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumarpal Desai
PublisherSahitya Academy
Publication Year2006
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy