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________________ आनंदघन: कबीर, मीरा और अखा के परिप्रेक्ष्य में : 63 " सासरी अमारो अग्नि नो भड़को, सासु सदानी शूणी रे, एनी प्रत्ये मारुं कांई न चाले रे एने आंगणिये नाखुं, पूणी रे 10 (मेरा ससुर आग की ज्वाला है और सास हमेशा से ही कुत्ती है उनके आगे मेरा कोई वश नहीं चलता । मैं हमेशा अपनी अंगुली छोटी करके ही रखती हूँ अर्थात् में हमेशा अतिसीमित दायरे में ही रहती हूँ ।) सास, ससुर जेठानी, देवरानी, ननद और पड़ोसन सभी मीरां को परेशान करते हैं । परन्तु मीरां तो इन सबकी परवाह किये बिना अपनी ही मस्ती में आँगन में 'थे थे' नाचती हैं । कवि आनंदघन भी सांसारिक सम्बन्धों को इसी तरह आलेखित करते हैं । वे कहते हैं कि चेतन जो की नारी के मोह में अंधा हो गया है, उसके क्रोध और मान ( घमण्ड ) नाम के दो बेटे हैं जिनको लोग थप्पड़ मारते हैं । उसका लोभ नामक दामाद हैं और माया नाम की बेटी हैं, और इस तरह उसका यह परिवार बढ़ता ही जाता हैं : " क्रोध, मान बेटा भये हो, देत चपेटा लोक; लोभ जमाई माया सुता हो, एह वढ्यो परि मोह | " || इसी तरह कवि आनंदघन कहते हैं कि माता-पिता रिश्तेदार या परिजन की बात तो बिलकुल बेकार लगती है । जिसने एक बार सत्संग के रस का आस्वादन कर लिया है, उसे फिर कोई रस नहीं भाता । संसार के रिश्तेदार इस रस को समझ नहीं पाते । इसीलिए उसकी निंदा करते हैं । कवि कहते हैं : मात तात सज्जन जात वात करत है मोरी चाखे रस की क्युं करी छूटे ? सुरिजन सुरिजन टोरी हो । इससे भी अधिक मस्ती में झूमकर आनंदघन कह उठते हैं : “भ्रात न मात न तात न गात न जात न वात न लागत मोरी, मेरे सब दिन दरसन फरसन, तान सुधारस पान पगोरी ।" " मेरा कोई भाई नहीं, माता नहीं, पिता नहीं, रिश्तेदार नहीं हैं । उनकी बात मुझे नहीं सुहाती । मेरे लिए तो हर रोज उसी का दर्शन, उसी की तान उसी की पूजा, उसी की पूजा ।” ऐसे सांसारिक संबंध छूट जाते हैं, माया की ममता टूट जाती है, तब मीरां के विष का प्याला अमृत बन जाता है । आनंदघन की मस्ती निरामय आनंद में लीन हो जाती है । मीरां कहती है 'प्रेम पियालो में पीधो रे,' जबकि आनंदघन कहते हैं : " ज्ञानसिंधु मथित पाई, प्रेम पीयूष कटोरी हो; मोहत आनंदघन प्रभु शीशधर देखत दृष्टि चकोरी । 12 मीरां को 'राम रतन धन' की प्राप्ति होने पर आनंद की कोई सीमा नहीं रहती; जबकि आनंदघन 'श्री विमलनाथ जिन स्तवन' में 'धींग धणी माथे किया रे' कहकर अपने तमाम दुःख और दुर्भाग्य से छुटकारा पानें का आनंद प्रकट करते हैं और कैसा है इन संतों का प्रभुप्रेम ! मीरां कहती हैं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003220
Book TitleBhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumarpal Desai
PublisherSahitya Academy
Publication Year2006
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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