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________________ परम्परा और आनंदघन : 33 अक्षय खजाना रखने वाले “साहिबा” से सेवक को कुछ देने की विनती करते हैं । उनके दरबार में रात-दिन खड़े रहकर जरा भी कमी न आये इस तरह स्वयं सेवा करते हैं और अन्त में वे जिनवर को विनती करते हैं : "मुजने आपो वहाला वांछितदान जो, जेहवो रे तेहवो छु तो पण ताहरो रे; वहालो वहेलो रूड़ो सेवक धान जो, दोष न कोई रे गणजो माह रो रे. जगबंधव जाणीने ताहरे पास जो, आव्यो रे उमाह धरीने नेहशु रे, श्रीअखायचंद सूरीश पसाये आश जो, सफणी फणी छे खुशालमुनिने जेहशुं रे." इसी प्रकार श्री हरखचंदजी श्री शांतिनाथ जिन स्तवन के प्रारंभ में कहते हैं कि 'चित्त चाहत सेवा चरनन की ।' प्रभु को प्रियतम या मित्र मानकर भी इसका गुणगान किया जाता है । आनंदघनजी ने ऋषभ-जिन के प्रथम स्तवन में उन्हें "प्रीतम" कहा है । प्रभु को प्रियतम मानकर प्रभु अपने को भूल गए, इस प्रकार के उपालंभ वाले स्तवनों की भी रचना हुई है और ऐसे स्तवनों में कृष्णभक्ति के पदों की झलक भी देखने को मिलती है । अमृतविजयजी नेमिनाथ स्तवन में गुलाल उड़ाते हुए प्रियतम की बात करते हुए कहते हैं : "रस बस के संग है कुरकवा, वा न दूर हिया रिझेगी; केसर भरी पिचकारी निवारी, सुरंग चुनरिया भीजेगी, पीरी भई पियु पियु रटनायें, जैसी जुन्हीया छीजेगी, खेल बरज सरिना की महिया, कहा जू सुनइया कीजेगी मन भावन पिया नेमिसर सों अमृत रस या पीजेगी." प्रभू को 'मजरा' लेने के लिए भी कहा जाता है और यह “जन्म जन्म का सेवक" ('भव भव सेवक') उनके पास मांगता है : "कांई जोज्यो कांई जोज्यो रे, स्वामीड़ा मुने नेहभर जोजेयो मुजरो ल्यो के पास जिणंदा, टाणी जे भव फेरो रे..." श्री कांतिविजयजी रचित पार्श्वजिन स्तवन में इस प्रकार 'स्वामीड़ा' के पास याचना की गई है तो प्रभु को उपालंभ देते हुए स्तवन भी मिलते हैं - "बापापणे आपण ससने ही, रमता नव नव वेषे; आज तुमे पाम्या प्रभुताई, अमे तो संसारीने वेषे, हे प्रभुजी ! ओलंभडे मत खीजो. जो तुम ध्याता शिव-सुख लहीए, तो तुमने कोई ध्यावे; पण भवस्थिति-परिपाक थया विण, कोई न मुक्ति जावे । हे प्रभुजी ।" स्तवनों में तीर्थंकर के जीवन को अथवा उनके जीवन की किसी एक घटना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003220
Book TitleBhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumarpal Desai
PublisherSahitya Academy
Publication Year2006
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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