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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [13] आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : व्यक्तित्त्व एवं कर्तृत्व प्रत्येक शताब्दी में सभी परंपराओं में एवं सभी दार्शनिक शाखाओं में दिग्गज विद्वान् होते आये हैं। इसी प्रकार जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक आम्नाय में विक्रम की 20 वीं (ईसा. की 19 वीं) शती में स्वनामधन्य आगममर्मज्ञ विश्वपूज्य आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराजने भारतभूमि को अलंकृत किया एवं अपने आचार्यत्व एवं अपनी विलक्षण प्रतिभा से संसार को आलकित किया । डो, अमर जैन के अनुसार उन्नीसवीं सदी में हुए समर्थ शासन प्रभावक पूज्यपाद गुरुदेव जैनाचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी उस युग में अपनी उपमा स्वयं थे। अखण्ड बाल ब्रह्मचारी, प्रबल-प्रतापी, प्रगट-प्रभावी उन्होंने स्वयं के जीवन को वीरवचनानुसार यापन किया। उनका जीवन इतना व्यापक और विराट् है कि उनकी परिचय-प्रशस्ति को शब्दों में बांधना उडुप (छोटी नाव) से सागर पार करने के दुःसाहस के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। उन्होंने सामाजिक, धार्मिक, नैतिक क्षेत्रों में अपने ज्ञान का प्रकाश फैलाकर व्याप्त उदासी, अंधविश्वास और अज्ञानतम को समाप्त करने हेतु क्रियोद्धार करके चेतना का शंखनाद फूंका था। उनकी क्रिया-तत्परता व लक्ष्य के प्रति अविचलदृढताने उस युग व समाज को नई दिशा दी। उन्होंने दिशाभ्रष्ट हुए भ्रान्त जनमानस को अपनी दिव्यप्रभा से सत्य के मार्ग पर स्थापित किया। वे न केवल मूर्धन्य विद्वान थे, अपितु एक सशक्त, दृढ संकल्पी शास्ता और प्रशासक भी थे। उन्होंने जिनशासन की वास्तविकता का वस्तुनिष्ठ मूलयांकन कर उसका अपने जीवन में अक्षरशः पालन किया। 'मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्' -इस उक्ति को उन्होंने अपने निश्छल जीवन में और निष्कपट व्यवहार में चरितार्थ की थी। उनमें ज्ञान था, ज्ञान का अहंकार नहीं था, त्याग था; त्याग का दर्प नहीं था। साधना के कठोर मार्ग पर वीर सैनिक की भांति आप सदैव आगे बढते रहे। उनके बहु-आयामी विराट व्यक्तित्त्व को प्रकट करना शब्दों की शक्ति के बाहर है, फिर भी विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी के अनुसार यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा हैं। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : क्रांति के अग्रदूतः वास्तव में सतत पद-विहार से मुनि जीवन में नानाविध जिस समय आचार्य विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने क्रियोद्धार किया अनुभव और चारित्र की शुद्धि होती हैं। देश-विदेश का ज्ञान प्राप्त वह समय भारत में ई.स. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का समय था। होता है और शरीर निरोगी रहता हैं। उन दिनों महर्षि दयानंद सरस्वतीने भारत में व्याप्त सतीप्रथा एवं अंधविश्वास गुरुदेवश्री के सतत विचरण से विशाल भू-भाग को से भरे रुढि-रिवाजों को दूर करने हेतु क्रांति शुरु कर दी थी। आचार्य निम्नलिखित लाभ हुए :विजय राजेन्द्रसूरिने भी तत्कालीन समाज में क्रांति के अग्रदूत के (1) यति संस्था का कायाकल्प रुप में जीवन बिताया। यति समाज में छाये शिथिलाचार को अपने (2) श्री संघ पर से यति-शासन की समाप्ति उत्कृष्ट त्याग से दूर किया। आपके 'नवकलमीनामा' ने समाज को (3) शुद्ध साध्वाचार का प्रचार नवोत्थान दिया। समाज को यतियों के त्रास से मुक्त किया और (4) संघ और साधु की टूटी कड़ियों का मेलन श्रीपूज्य तथा यतिपरम्परा को क्रियोद्धार के द्वारा समाप्त किया। (5) जिन-बिंब और जिन-वाणी की आस्था, श्रद्धा एवं प्रचार आचार्य श्रीमद्वविजय राजेन्द्रसूरि : उग्र-विहारी :- (6) तीर्थोद्धार जैन साधु वर्षाकाल में एकत्र निवास करते हैं, शेष-काल (7) जातिय क्लेशों का दफन में गाँवों और नगरों में मर्यादानुसार विहार/भ्रमण करते हैं। तदनुसार विहारान्तर्गत आचार्यश्री द्वारा कृत यात्राएँ :आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी भी अपने जीवन के अंतिम सौराष्ट्र में श्री सिद्धाचलजी, गिरनार, प्रभास-पाटन, दाठा, सप्ताह तक साधु-मर्यादानुसार नंगे पैर विचरण करते रहे। किसी विशेष महुवा, तलाजा, घोघा, कदम्बगिरि, हस्तगिरि कारण की अनुपस्थिति में आप गाँव में एक रात्रि और नगर में पाँच आदि। रात्रि से ज्यादा नहीं रहें। किसी एक प्रदेश या क्षेत्र में कभी आप स्थिर होकर नहीं रहें। यदि विहार में आप चलने लगते तो अच्छे गुजरात में : भरुच, खंभात, भोयणी, शेरीसा, पानसर, अच्छे नवजवानों को भी बहुत पीछे छोड देते थे, इसलिए कविजन शंखेश्वर, भीलडी, उपरियाला, पाटण, पंचासर, लिखते थे चारुप आदि। "राजेन्द्र सूरीश्वरजी बैठे तो खैर तणी खंटी हैं। निजभार मारवाड में वरकाणा, नाडोल, नाडुलाई, मूछाला महावीर, खंध पर ले चलते तो पवन की बुंटी हैं।" राणकपुर, राता-महावीर, बावनवाडा, नांदियाँ, इतना ही नहीं, विहार में स्वयं के सभी उपकरण स्वयं दयाणा, कुंभारिया, आबू-अचलगढ, जीरावला, ही अपने कंधो पर उठाते थे। अपनी एक पुस्तक भी कभी भी भण्डवपुर, जालोरगढ, नाकोडा, जैसलमेर, अपने शिष्य तक को भी उठाने नहीं दी। लोद्रवा, फलोदी, कापरडा, जाकोडा, कोरटा सतत विहार से लाभ : आदि। 'बहता पानी निर्मला पड्या गंदा होय । 79. श्री राजेन्द्र ज्योति, खंड ख पृ. 16 साधु तो रमता भला, दाग लगे न कोय ॥" 80. श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि अष्टप्रकारी पूजा ढाल-8 81. जीवनप्रभा (श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : जीवनवृत्त) एवं धरती के फूल दा Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org|
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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