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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [65] 5. षष्ठ-भाग की समापिका पुष्पिका के अंतिम वाक्य में षष्ठ प्रारंभ की और एक विशाल शब्द राशि का संकलन कर अभिधान भाग समाप्त होने की सूचना दी गयी है। इससे सिद्ध होता राजेन्द्र नामक प्राकृत-संस्कृत पर्याय कोश की चार भाग में है कि इससे आगे का भाग जिस पर यह ग्रंथ समाप्त हो जाता रचना की, जिसे बाद में 'पाइयसईबुहि' नाम दिया गया - है, इस ग्रंथ का सप्तम भाग है। यह इसके प्रथम पृष्ठ को देखने से ज्ञात होता है। इसमें पहले इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि इस ग्रंथ की विषय मूल प्राकृत शब्द देकर पश्चात् उसके अनेक अर्थ संस्कृत में वस्तु सात ही भागों में विभक्त है न कि चार भागों में । दिये गये हैं। ('तीर्थकर' मासिक के अभिधान राजेन्द्र कोश विषय-विभाग के विषय में भ्रमात्मक उल्लेख का कारण विशेषांक में एवं राजेन्द्र ज्योति में 'पाइयसईबहि' के प्रथम और निराकरण: पृष्ठ की हस्तप्रति की छायाप्रति मुद्रित की गयी है।) ऊपर कह आये हैं कि प्रस्तावना उपोद्धात में विषय वस्तु __ (3) चूंकि आचार्यश्री एक संदर्भ कोश की रचना करना चाहते थे का विभाग 4 भागों में किये जाने का उल्लेख है। यह उल्लेख प्रस्तावना इसलिए ऊपर वर्णित प्राकृत-संस्कृत पर्याय कोश से संतुष्ट और उपोद्घात के लेखकों (अभिधान राजेन्द्र के सम्पादकों) द्वारा नहीं हुए, यद्यपि इसमें जैनागम साहित्य में प्राप्त अर्ध-मागधी किये गये हैं जिनको मूल रूप से नीचे उद्धृत किया जा रहा है भाषा के शब्दों का संकलन किया जा रहा था। (1) "......अर्थात् 'अभिधान राजेन्द्र' नाम का कोश मागधी ) श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ के पृष्ठ क्रमांक 88 के अनुसार भाषा में रचकर चार भागों में विभक्त कर दिया" 110 'पाइयसदबुहि' ग्रंथ में पहले प्राकृत फिर उसके संस्कृत पर्याय (2)........। यद् -'अभिधानराजेन्द्र' नाम कोशः और तदनन्तर हिन्दी अर्थ दिये गये हैं। प्राकृतभाषाप्रभेदभूतमागध्यां विरचय्य चतुर्षु भागेषु विभक्तः ।। (5) आचार्यश्री के समय में हिन्दी की भाषा के रुप में प्रतिष्ठा उपरिलिखित दोनों उल्लेखों से यह भ्रम होना स्वाभाविक हो चुकी थी और संस्कृत के ज्ञाता कम थे, अतः कोश को है कि अभिधान राजेन्द्र कोश चार भागों में ही लिखा गया हो। लोकोपयोगी बनाने के लिये आचार्यश्रीने दूसरे उपक्रम में अपने परंतु संशोधकद्वय ने ही सातों भागों का संशोधन करके उनकी प्रशस्तियाँ प्राकृत कोश का प्राकतृ-संस्कृत-हिन्दी पर्याय कोश के रुप लिखी हैं। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया है- 'षष्ठ भाग समाप्त हुआ।" में लेखन प्रारंभ किया। निश्चित ही यह भी प्रथम उपक्रम अर्थात् षष्ठ भाग से आगे भी कोई भाग है और वह आनुपूर्वीक्रम के अनुरुप चार भागों में विभक्त किया गया होगा। से अर्थात् क्रमभाव संबंध से सप्तम भाग ही होता है। चूंकि आगे (6) परंतु आचार्यश्री के अभीष्ट संदर्भ कोश की पूर्ति इस प्राकृतकी विषय-वस्तु पूरी होने के साथ ही यह ग्रंथ भी समाप्त हो गया, संस्कृत-हिन्दी पर्याय कोश से भी नहीं होती थी, इसलिए इसलिए यहाँ पर सप्तम भाग के अंत में ग्रंथ समाप्ति की प्रशस्ति आचार्यश्री ने तीसरे उपक्रम में ससंदर्भ कोश की रचना दी गयी है। प्रारंभ की जिसका कि वि.सं. 1946 आश्विन शुक्ल द्वितीया यदि सप्तम भाग के अंत में भी 'समाप्तश्चाऽयं सप्तमो भागः' को सियाणा (राजस्थान) नगर में प्रारंभ होने का उल्लेख -ऐसी प्रशस्ति होती तो उससे क्रमभाव संबंध से यह ज्ञात होता अभिधान राजेन्द्र कोश में प्राप्त होता है और यह तीसरे कि इसके आगे भी कोई विषय-वस्तु है। अतः न्याय के सिद्धांत उपक्रम में लिखा हुआ कोश 'अभिधान राजेन्द्र कोश' के पर क्रमभाव को दृष्टि में रखकर 'समाप्तश्चायं सप्तमो भागः।' ऐसा नाम से विख्यात हैं। उल्लेख नहीं किया है, और ऐसा उल्लेख न करने से संशोधकद्वय ने (7) श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ एवं अभिधान राजेन्द्र विशेषांक: यह सिद्ध किया है कि इस ग्रंथ के सात ही भाग हैं, आठवाँ नहीं। शाश्वत धर्म में उल्लेख है कि 'पाइयसइंहबुहि' की पूर्णाहुति अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यदि इस ग्रंथ के वि.सं. 1956 में शिवगंज में हुई। इससे यह सिद्ध होता है सात ही भाग हैं, न्यूनाधिक नहीं, तो परम विद्वान, आगमज्ञाता, कि आचार्यश्रीने प्रथम उपक्रम के प्राकृत-संस्कृत पर्याय कोश अभिधान राजेन्द्र कोश के संशोधकद्वय एवं प्रस्तावना के लेखक, से पूर्ण संतुष्ट न रहने पर भी उसका लेखन कार्य जारी रखा उपाध्याय श्री मोहन विजयजीने अपने लेखन में चार भागों में विभाग और उससे संतुष्ट न होने पर दूसरे उपक्रम के प्राकृत-संस्कृतकरने का निर्देश करने की त्रुटि कैसे की होगी? यह आश्चर्य का हिन्दी' पर्याय कोश का लेखन प्रारंभ किया और उससे भी विषय है, अर्थात् त्रुटि नहीं की है। उनका कथन भी आंशिक संतुष्ट न होने पर संदर्भ कोश का तृतीय उपक्रम किया। और रुप से समीचीन जान पडता है, जिसके विषय में हमारा अभ्युपगम साथ ही प्रथम और द्वितीय उपक्रम के कोशों को लोकोपयोगी निम्न प्रकार से हैं मानते हुए दोनों का भी लिखना जारी रखा जो कि चार भागों (1) आचार्य विजय जयन्तसेनसूरि के प्रवचन के अनुसार आचार्य में विभक्त था। विजय राजेन्द्रसूरि ने कोश ग्रंथ का प्रणयन प्रारंभ किया 9. ----समाप्तोश्वाऽयं भागः । अ.रा.भा.6, पृ.1458 था लेकिन संतुष्टि न होने पर दूसरी बार फिर से लेखन 10. अ.रा.भा. .... प्रथम आवृत्ति की प्रस्तावना - पृ. 2 (उपाध्याय मुनि श्री कार्य आरम्भ किया। फिर भी उन्हें संतुष्टि न होने पर तीसरी मोहन विजयजी) बार लेखन शुरु किया जिसका परिणाम 'अभिधान राजेन्द्र 11. अ.रा.भा. 1 उपोद्घात, पृ. 2 (संशोधक मुनि दीपविजयजी एवं मुनि कोश' हैं। यतीन्द्र विजयजी) (2) हमारा अभ्युपगम यह है कि आचार्यश्रीने वि.सं. 1940 में विदेशी 12. पूर्वोत्तरचारिणोः कार्यकारणयोश्च क्रमभावः । प्रमेयकमलमार्तण्ड, परोक्ष विद्वानों की मुलाकात के बाद 'प्राकृत कोश' की आवश्यकता परिच्छेद सूत्र 3/8 पूर्वोत्तरचारिणोः कृतिका-शकटोदयादिस्वरुपयोः कार्यकारणयोअनुभव की और अल्प-काल के बाद ही उसकी प्रणयन प्रक्रिया श्चाग्निधूमादिस्वरुपयोः क्रमभावः....। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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