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________________ 'आगम' शब्द विमर्श डॉ. हरिशंकर पाण्डेय 'आगम' शब्द का प्रयोग जैनदर्शन में ही नहीं शैव, योग, सांख्य, न्याय आदि दर्शनों में भी हुआ है। आप्त वचनों को आगम प्रमाण मानने की परम्परा लगभग सभी भारतीय दर्शनों में रही है। किन्तु 'आगम' शब्द की प्रसिद्धि शैव एवं जैन दर्शनों में विशेष हुई है। शैवागम एवं जैनागम शब्द इसके प्रमाण हैं। डॉ. हरिशंकर पाण्डेय ने तंत्रवाङ्मय (शैवदर्शन), योगदर्शन, सांख्यदर्शन एवं न्यायदर्शन में 'आगम' की चर्चा करने के अनन्तर इस आलेख में जैन दर्शन सम्मत 'आगम' शब्द का विवेचन किया है। प्राचीनकाल से ही भारत ज्ञान के क्षेत्र में 'विश्वगुरु' के रूप में प्रसिद्ध है | जब संसार अज्ञान के अंधतमस् से आच्छन्न था, तब भारतीय प्रज्ञाकाश में ज्ञान का भास्वर भास्कर विद्योतित था । ऋषि, मनीषी एवं मेधावी पुरुष ध्यान, साधना और समाधि के द्वारा तत्त्व का, यथार्थ का, परम का साक्षात्कार करते थे। उस परम में समाधिस्थ होकर, एकत्रावस्थित होकर आनन्द सागर में निमज्जित होते रहते थे । आनन्द सागर में निमज्जन ही उनके जीवन का स्वारस्य एवं परम प्रयोजन के रूप में अभिलक्षित था । -सम्पादक परम का साक्षात्कार, तत्त्व की उपलब्धि एवं सत्य का ज्ञान कर जब यथार्थ द्रष्टा ऋषि समाधि से उपरत होते थे, तो अपने ज्ञान को लोकमंगल एवं विश्व कल्याण के लिए प्रशान्तचित्त, जितेन्द्रिय एवं संयमी शिष्यों के हृदय में प्रतिष्ठित करते थे । गुरु से सुनकर शिष्य परमविद्या को प्राप्त करते थे, इसलिए उसे श्रुति कहा जाने लगा। गुरु और शिष्य की परम्परा से आगत होने एवं यथार्थवक्ता के द्वारा उपदिष्ट होने के कारण उसे ही आगम शब्द से अभिहित किया गया । 'आगम' शब्द की व्युत्पत्ति- 'आङ्' उपसर्ग पूर्वक ‘गम्लृ गतौ' धातु से घञ् प्रत्यय करने से ‘आगम' शब्द निष्पन्न होता है । आङ् उपसर्ग का प्रयोग ईषद्, अभिव्याप्त आदि अर्थों में होता है। 'आङ्' उपसर्ग के साथ 'अत सातत्य गमने'' धातु से बाहुलकात् अङ् प्रत्यय करने पर भी बनता है। अमरकोशकार ने निम्न अर्थों में 'आङ्' का निर्देश किया है - आङीषदर्थेऽभिव्याप्तौ सीमार्थे धातुयोगजे । गम् धातु गत्यर्थक है । जो गत्यर्थक हैं वे धातुएं ज्ञानार्थक होती हैं- 'ये गत्यर्थकाः ते ज्ञानार्थका अपि भवन्ति ।' इस न्याय से गम् धातु ज्ञानार्थक भी माना जाएगा। जो सतत ज्ञान में गमन करे, सतत ज्ञान में लीन है या जो ज्ञान का आधार (साधन) है, उसे आगम कहा जाएगा। 'आङ्' का प्रयोग पाणिनि ने मर्यादा और अभिविधि अर्थ में किया है। जिस ज्ञान को सम्यक् रूप से प्राप्त किया जाए या जो ज्ञान मर्यादापूर्वक गुरु-शिष्य परम्परा से आ रहा है, उसे 'आगम' कहते हैं। जिसकी परम्परा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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