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________________ 1502 जिनवाणी-जमागम-साहित्य विशेषाङक करना कार्यकारी होता है, इसलिये चारित्र की आराधना में सबकी आराधना होती है अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान पूर्वक ही सम्यक् चारित्र होता है। इसलिये सम्यक् चारित्र की आराधना में सबकी आराधना गर्भित है। इसी से आगम में आराधना को चारित्र का फल कहा है और आराधना परमागम का सार है।।१४।। क्योंकि बहुत समय तक भी ज्ञान दर्शन और चारित्र का निरतिचार पालन करके भी यदि मरते समय उनकी विराधना कर दी जाये तो उसका फल अनंत संसार है।।१६।। इसके विपरीत अनादि मिथ्यादष्टि भी चारित्र की आराधना करके क्षणमात्र में मुक्त हो जाते हैं। अत: आराधना ही सारभूत है।।१७।। - इस पर से यह प्रश्न किया गया कि यदि मरते समय की आराधना को प्रवचन में सारभूत कहा है तो मरने से पूर्व जीवन में चारित्र की आराधना क्यों करनी चाहिए।।१८।। उत्तर में कहा है कि आराधना के लिए पूर्व में अभ्यास करना योग्य है। जो उसका पूर्वाभ्यासी होता है उसकी आराधना सुखपूर्वक होती है।।१९।। यदि कोई पूर्व में अभ्यास न करके भी मरते समय आराधक होता है तो उसे सर्वत्र प्रमाणरूप नहीं माना जा सकता।।२४।। इस कथन से हमारे इस कथन का समाधान हो जाता है कि दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप का वर्णन जिनागम में अन्यत्र भी है, किन्तु वहाँ उन्हें आराधना शब्द से नहीं कहा है। इस ग्रन्थ में मुख्यरूप से मरणसमाधि का कथन है। मरते समय की आराधना ही यथार्थ आराधना है। उसी के लिए जीवनभर की आराधना की जाती है। उस समय विराधना करने पर जीवन भर की आराधना निष्फल हो जाती है और उस समय की आराधना से जीवनभर की आराधना सफल हो जाती है। अत: जो मरते समय आराधक होता है यथार्थ में उसी के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक्तप की साधना को आराधना शब्द से कहा जाता है। इस प्रकार चौबीस गाथाओं के द्वारा आराधना के भेदों का कथन करने के पश्चात् इस विशालकाय ग्रन्थ का मुख्य वर्ण्य विषय मरणसमाधि प्रारम्भ होता है। इसको प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि यद्यपि जिनागम में सतरह प्रकार के मरण कहे हैं किन्तु हम यहाँ संक्षेप से पाँच प्रकार के मरणों का कथन करेंगे।।२५ ।। वे हैं-पण्डित-पण्डितमरण, पण्डितमरण बालपण्डितमरण, बालमरण और बाल बालमरण।।२६।। क्षीणकषाय और केवली का मरण पण्डित-पण्डितमरण है और विरताविरत श्रावक का मरण बालपण्डितमरण है।।२७ ।। अविरत सम्यग्दृष्टि का मरण बालमरण है और मिथ्यादृष्टि का मरण बाल-बालमरण है।।२९।।। __पण्डितमरण के तीन भेद हैं- भक्तप्रतिज्ञा, प्रायोपगमन और इंगिनीमरण। यह मरण शास्त्रानुसार आचरण करने वाले साधु के होत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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