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________________ 484 B जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क बृहत्कल्पचूर्णि - यह चूर्णि मूलसूत्र और उस पर लिखे हुए लघुभाष्य पर लिखी गई है। इस चूर्ण का प्रारंभिक अंश दशाश्रुतस्कन्ध चूर्णि से बहुत कुछ मिलता है । सम्भवतः दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि बृहत्कल्पचूर्णि के पूर्व में लिखी गई है और दोनों एक ही आचार्य की रचनाएं हैं। यहां तत्त्वार्थाधिगम, विशेषावश्यकभाष्य, कर्मप्रकृति, महाकल्प और गोविन्दनियुक्ति का उल्लेख है। जीतकल्प बृहच्चूर्णि - यह चूर्णि मूलसूत्र पर लिखी गई है। सिद्धसेनसूरिकृत यह चूर्णि प्राकृत में है । इसमें संस्कृत का प्रयोग नहीं किया गया है। चूर्णिकार ने आदि और अन्त में जीतकल्पसूत्र के प्रणेता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण को नमस्कार किया है। प्रस्तुत चूर्णि में एक अन्य चूर्णि का भी उल्लेख है, जो अनुपलब्ध है। उत्तराध्ययनचूर्णि- उत्तराध्ययनचूर्णि के कर्त्ता जिनदासगणि महत्तर हैं। इन्होंने अपने धर्मगुरु का नाम वाणिज्यकुलीन, कोटिकगणीय, वज्रशाखीय गोपालगणि महत्तर तथा विद्यागुरु का नाम (निशीथविशेषचूर्णि के उल्लेखानुसार) प्रद्युम्न क्षमाश्रमण बताया है। यह चूर्णि भी नियुक्ति का अनुसरण करके लिखी गई है। चूर्णिकार ने अपनी कृति दशवैकालिक चूर्णि का उल्लेख किया है। नागार्जुनीय पाठ का यहां अनेक स्थलों पर उल्लेख है। बहुत से शब्दों की विचित्र व्युत्पत्तियां दी हुई हैं। आवश्यकचूर्णि - आवश्यकचूर्णि के कर्त्ता जिनदासगणि महत्तर माने जाते हैं। यह आवश्यक सूत्र में प्रतिपादित सूत्रों पर सीधे टीका नहीं है, किन्तु विशेषावश्यक की भांति आवश्यक की नियुक्ति को आधार मान कर लिखी गई है। जहां-तहां विशेषावश्यक भाष्य की गाथाओं का व्याख्यान देखने में आता है । सूत्रकृतांग आदि चूर्णियों की भांति इस चूर्णि में केवल शब्दार्थ का ही प्रतिपादन नहीं है, बल्कि भाषा और विषय की दृष्टि से निशीथ चूर्णि की तरह यह एक स्वतंत्र रचना ज्ञात होती है । दशवैकालिकचूर्णि(जिनदासगणिमहत्तरकृत) - दशवैकालिकचूर्णि के कर्त्ता जिनदासगणि महत्तर माने जाते हैं। यह चूर्णि भी निर्युक्ति का अनुसरण करके लिखी गई है। जिनदासगणि की प्रस्तुत चूर्णि में आवश्यक चूर्णि का उल्लेख भी मिलता है। इससे पता चलता है कि आवश्यक चूर्णि के पश्चात् इसकी रचना हुई। यहां भी शब्दों की विचित्र व्युत्पत्तियां दी गई हैं। दशवैकालिकचूर्णि (अगस्त्यसिंह कृत) - जिनदासगणि महत्तर कृत चूर्णि की भांति यह चूर्णि भी नियुक्ति का अनुगमन करके लिखी गई है। चूर्णि के अंत में चूर्णिकार ने अपना नाम कलशभवमृगेन्द्र (कलश-भव - कलश से उत्पन्न अर्थात् अगस्त्य; मृगेन्द्र = सिंह) अर्थात् अगस्त्यसिंह व्यक्त किया है। अगस्त्यसिंहगणि ऋषिगुप्त क्षमाश्रमण के शिष्य थे। वे कोटिगणीय वज्रस्वामी की शाखा के आचार्य थे। स्थविर अगस्त्यसिंह का समय विक्रम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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