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________________ आगम-साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान, महत्त्व, रचनाकाल एवं रचयिता डॉ. सागरमल जैन आगम-विभाजन में अंग, उपांग, छेद एवं मूलसूत्र तो प्रसिद्ध ही हैं, किन्तु इनके अतिरिक्त श्वेताम्बर, मूर्तिपूजक परम्परा में प्रकीर्णकों को भी आगम- श्रेणी में रखा गया है। प्रकीर्णकों में से नौ का उल्लेख नन्दीसूत्र में कालिक- उत्कालिक सूत्र-विभाजन में किया गया है। श्वेताम्बर मर्तिपजक परम्परा में ४५ आगम-मान्यता के अन्तर्गत १० प्रकीर्णक सूत्रों की गणना की जाती है, किन्तु प्राचीन एवं अर्वाचीन प्रकीर्णकों की कुल संख्या ३० के आसपास हो गई है। जैन धर्म-दर्शन के मूर्धन्य मनीषी विद्वान् डॉ० सागरमल जी जैन ने प्रस्तुत लेख में कई प्रकीर्णकों को प्राचीन एवं सम्प्रदायगत आग्रहों से मुक्त बताते हुए इनके अध्ययन की उपयोगिता पर बल दिया है। प्रकीर्णकों के रचनाकाल, रचयिता एवं महत्त्व पर संक्षिप्त किन्तु महत्त्वपूर्ण जानकारी इस आलेख में समाविष्ट है। -सम्पादक किसी भी धार्मिक परम्परा का आधार उसके धर्मग्रन्थ होते हैं, जिन्हें वह प्रमाणभूत मानकर चलती है। जिस प्रकार मुसलमानों के लिये कुरान, ईसाइयों के लिये बाइबिल, बौद्धों के लिये त्रिपिटक और हिन्दुओं के लिये वेद प्रमाणूभूत ग्रन्थ हैं, उसी प्रकार जैनों के लिये आगम प्रमाणभूत ग्रन्थ है। सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र, नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में आगमों का वर्गीकरण अंगबाह्य के रूप में किया गया है। परम्परागत अवधारणा यह है कि तीर्थकरों द्वारा उपदिष्ट और गणधरों द्वारा रचित ग्रन्थ अंगप्रविष्ट आगम कहे जाते हैं। इनकी संख्या बारह है, जो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में समान रूप से स्वीकृत है। इन अंग आगमों के नाम हैं- १. आचारांग, २. सूत्रकृतांग ३. स्थानांग ४. समवायांग ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति ६. ज्ञाताधर्मकथांग ७. उपासकदशांग ८. अन्तकद्दशांग ९. अनुत्तरोपपातिकदशा १० प्रश्नव्याकरणदशा ११. विपाकदशा और १२. दृष्टिवाद। इनके नाम और क्रम के संबंध में भी दोनों परम्पराओं में एकरूपता है। मूलभूत अन्तर यह है कि जहां श्वेताम्बर परम्परा आज भी दृष्टिवाद के अतिरिक्त शेष ग्यारह अंगों का अस्तित्व स्वीकार करती है, वहां दिगम्बर परम्परा आज मात्र दृष्टिवाद के आधार पर निर्मित कसायपाहुड, षटखण्डागम आदि के अतिरिक्त इन अंग-आगमों को विलुप्त मानती है। ___अंगबाह्य ग्रन्थ वे हैं जो जिनवचन के आधार पर स्थविरों के द्वारा लिखे गये हैं। नन्दीसूत्र में अंगबाह्य आगमों को भी प्रथमत: दो भागों में विभाजित किया गया है- १. आवश्यक २. आवश्यक व्यतिरिक्त। आवश्यक के अन्तर्गत सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वंदना , प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान- ये छ: ग्रन्थ सम्मिलित रूप से आते हैं, जिन्हें आज आवश्यकसूत्र के नाम से जाना जाता है। इसी ग्रन्थ में आवश्यक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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