SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 463
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1448 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङका करता है। दृढ़ निश्चय करता है कि दोष प्रवेश के लिये अणुमात्र भी अवकाश नहीं है। भविष्य में दोष नहीं लगे इस बात का चिन्तन ही वास्तविक प्रतिक्रमण है। भाव प्रतिक्रमण करने वाला सर्वथाभावेन प्रायश्चित्त करता है और अपनी आत्मा को पुन: शुद्ध स्थिति में पहुँचाने का प्रयत्न करता है। भाव प्रतिक्रमण के लिये आचार्य जिनदास कहते हैं "भावपडिक्कमणं जं सम्मदंसणाइगुणजुत्तस्स पडिक्कमणं ति।।" आचार्य भद्रबाहु कहते हैंभावपडिक्कमणं पुण, तिविहं तिविहेण नेयव्वं ।।। मिच्छाताइ ण गच्छइ. ण व गच्छावेइ णाणु जाणेई जं मण-वय-काएहिं, तं भणियं भाव पडिक्कमणं। आचार्य ने आवश्यक नियुक्ति में काल के भेद से प्रतिक्रमण तीन प्रकार का बताया है१. भूतकाल में लगे हुए दोषों की आलोचना करना। २. वर्तमानकाल में लगने वाले दोषों से संवर द्वारा बचना। ३. प्रत्याख्यान द्वारा भावी दोषों को अवरुद्ध करना। इसी तरह भगवती सूत्र में भी कहा है___ अइयं पडिक्कमेइ, पडुप्पन संवरेइ अणागयं पच्चक्खाई। विशेष काल की अपेक्षा से प्रतिक्रमण के पाँच भेद भी माने गये हैंदेवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक। साधक को इनका आचरण करना चाहिये। श्रमण की जीवनचर्या के लिये प्रतिक्रमण के छ: प्रकार अलग से बताये हैं- १. उच्चार प्रतिक्रमण २. प्रस्त्रवण प्रतिक्रमण ३. इत्वर प्रतिक्रमण ४. यावत्कथित प्रतिक्रमण ५. यत्किंचित् मिथ्या प्रतिक्रमण ६. स्वप्नादिक प्रतिक्रमण। संक्षेप में जिनका प्रतिक्रमण करना आवश्यक है, वे इस प्रकार हैं- २५ मिथ्यात्व, १४ ज्ञानातिचार, १८ पाप स्थानों का प्रतिक्रमण। चौरासी लाख जीवयोनि से क्षमायाचना करना सभी साधकों के लिये है। पाँच महाव्रत, मन, वाणी, शरीर का असंयम, गमन, भाषण, याचना, ग्रहण, निक्षेप एवं मलमूत्र विसर्जन आदि से संबंधित दोषों का प्रतिक्रमण भी श्रमण साधकों के लिये आवश्यक है। पाँच अणुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षाव्रत में लगने वाले अतिचारों का प्रतिक्रमण श्रावकों के लिये आवश्यक है। जिन साधकों ने संलेखनाव्रत ग्रहण कर रखा है, उनके लिये संलेखना के पाँच अतिचारों का प्रतिक्रमण आवश्यक है। प्रतिक्रमण साधक जीवन की अपूर्व क्रिया है। यह वह डायरी है जिसमें साधक अपने दोषों की सूची लिखकर एक-एक दोष से मुक्त होने का उपक्रम करता है, प्रतिक्रमण जीवन को सुधारने का श्रेष्ठ उपक्रम है, आध्यात्मिक जीवन की धुरी है। आत्मदोषों की आलोचना करने से पश्चात्ताप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy