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________________ निशीथ सूत्र श्री लालचन्द्र जैन निशीथसूत्र की गणना छेदसूत्रों में होती है। इसमें श्रमणाचार के आपवादिक नियमों एवं उनकी प्रायश्चित्त विधि की विशेष चर्चा है। यह सूत्र विशेष जानकारी हेतु ही योग्य साधुओं को पढ़ाया जाता था, सर्वपठनीय नहीं था, क्योंकि उन नियमों की जानकारी प्रमुख संतों को ही होनी आवश्यक थी। अब तो इस पर भाष्य, चूर्णि आदि का भी प्रकाशन हो गया है। वरिष्ठ स्वाध्यायी श्री लालचन्द्र जी जैन ने प्रस्तुत आलेख में निशीथ सूत्र पर प्रकाश डाला है I -सम्पादक उपलब्ध आगमों में चार आगमों को छेद सूत्र की संज्ञा दी गई है। यह संज्ञा आगमकालीन नहीं है । चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु स्वामी से पूर्व भी जिनशासन के प्रत्येक साधु-साध्वी के लिये आचारकल्प अध्ययन को कंठस्थ करना आवश्यक था। उस आचारकल्प अध्ययन का परिचय सूत्रों में जो मिलता है, वह वर्तमान में उपलब्ध निशीथ सूत्र का ही परिचायक है। इससे स्पष्ट होता है कि आगमों में निशीथ को आचारांग सूत्र का ही विभाग माना गया है। आचारांग में आचारप्रकल्प अध्ययन का जो मौलिक नाम निशीथ था, वही प्रसिद्ध हो गया और नंदीसूत्र के रचनाकार देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने उसी नाम को स्थान दिया। इससे निशीथ सूत्र की प्राचीनता भी सिद्ध होती है। इसका रचनाकाल आचारांग जितना ही पुराना है । अनिवार्य कारणों से या बिना कारण ही संयम की मर्यादाओं को भंग करके यदि कोई स्वयं आलोचना करके प्रायश्चित्त ग्रहण करे तो किस दोष का कितना प्रायश्चित होता है, यह इस छेदसूत्र का प्रमुख प्रतिपाद्य है। अतिक्रम, व्यतिक्रम एवं अतिचार की शुद्ध आलोचना और मिच्छामिदुक्कडं के अल्प प्रायश्चित्त से हो जाती है। अनाचार दोष के सेवन का ही निशीथ सूत्र में प्रायश्चित्त प्रतिपादित है । यह स्थविर कल्पी सामान्य साधुओं की मर्यादा है। यह आगम अब इतना गोपनीय नहीं रह गया है। तीर्थंकरों के समय में भी अंग शास्त्रों का साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, चतुर्विध संघ अध्ययन करता था। चौदह पूर्वी भद्रबाहु स्वामी ने भी आचारप्रकल्प अध्ययन को अत्यधिक महत्त्व दिया है। प्रत्येक युवा संत-सती को यह कंठस्थ होना चाहिए, इससे इसकी अतिगोपनीयता समाप्त हो जाती है। कालांतर में आगम-लेखन एवं प्रकाशन युग आया। देश-विदेशों में इनकी प्रतियों का प्रचार हुआ, अतः गोपनीयता अब केवल कथन मात्र के लिये रह गई। योग्य साधु-साध्वी के लिये छेद सूत्र गोपनीय नहीं है, बल्कि इनके अध्ययन बिना साधक की साधना अधूरी है, पंगु है, परवश है । इनके सूक्ष्मतम अध्ययन के बिना संघ व्यवस्था पूर्ण अंधकारमय हो जायेगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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