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________________ | 348 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक सूत्र कहने के पीछे क्या यह तात्पर्य है कि जीवन भर तीर्थकर महावीर प्रभु ने जिन अंग सूत्रों का कथन किया वे कम श्रेष्ठ थे? क्या दूसरे अंगसूत्रों में कोई कमी थी? अथवा वे सूत्र आत्म-परमात्म तत्त्व से जोड़ने में कुछ न्यूनता वाले थे? यदि नहीं, तो उत्तराध्ययन सूत्र को उत्तम, श्रेष्ठ और प्रधान किस हेतु से कहा जा रहा है? समाधान है- जीवन के अन्तिम समय में निचोड़ रूप कही गयी वाणी सारभूत कहलाती है। प्रभु महावीर ने साधना के क्षेत्र में कदम बढ़ाकर घनघानी कर्मों को क्षय करने के बाद चार तीर्थों की स्थापना की और वाणी का वागरण किया। तीर्थकर भगवान् महावीर की वाणी की 'त्रिपदी' से गणधर भगवन्तों ने अपने क्षयोपशम के अनुसार चौदह पूर्वो की रचना की और भगवन्त की वाणी के अर्थों को सूत्र रूप में गुंफित किया। आचारांग सूत्र पाँच आचारों का, महाव्रतों का, समितिगुप्ति का, कषायों से हटने का और वीतराग भाव की ओर बढ़ने का कथन करता है। सूयगडांग सूत्र स्व-सिद्धान्तों के मंडन और पर दर्शनों की मान्यताओं का अनेकान्त दृष्टि से प्रतिपादन करने की स्थिति से खण्डन-मण्डन करता है। ठाणांग सूत्र में, यह वस्तु है तो किस अपेक्षा से कौन से नय से हैं, इसका एक-दो-तीन इस तरह भेद-प्रभेद करते-करते दस ठाणों में वर्णन है। समवायांग सूत्र में द्रव्यानुयोग, जीव, कर्म, आस्रव, संवर, मोक्ष आदि विषयों का भेद-प्रभेद सहित विभिन्न समवायों में वर्णन है। समवायों के माध्यम से इसमें विशिष्ट ज्ञानसामग्री संकलित है। भगवती सूत्र में अनेकानेक जिज्ञासाओं का समाधान है। छत्तीस हजार जिज्ञासाएँ और उनका समाधान भगवती सूत्र में है। ज्ञाताधर्मकथा 'ज्ञात' अर्थात् उदाहरण या दृष्टान्तों के माध्यम से और उपमाओं के माध्यम से अवगुण छोड़ने की बात रखता है। उपासकदशांग में दस श्रावकों का वर्णन है। अन्यान्य गणधरों ने इसी तरह दस-दस श्रावकों का अलग-अलग वर्णन किया है। अन्तगडदसा सूत्र में जीवन के अन्तिम समय में कर्मों का अन्त कर समाधि प्राप्त करने वाले, परिनिर्वाण और मोक्ष प्राप्त करने वाले नब्बे जीवों का वर्णन है। अणुत्तरोववाइ में अल्पकाल में अधिक निर्जरा कर अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने वाले जीवों का वर्णन है। प्रश्नव्याकरण अनेक प्रकार की लब्धियों-सिद्धियों का वर्णन करने वाला सूत्र था। वर्तमान में उसमें ५ आस्रव एवं ५ संवर का वर्णन मिलता है। विपाकसूत्र सुख-दुःख का वर्णन करता है। साथ ही किस तरह दुःख देने से, असाता पहुँचाने से जीवन में कष्टानुभूति होती है और उसमें समभाव रखने से मोक्ष की प्राप्ति होती है, इसका वर्णन है। सुखविपाक में जन्म से सुख-समाधिपूर्वक पुण्य फल भोगते हुए मोक्ष जाने वालों का कथन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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