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________________ GHAR | उत्तराध्ययन सूत्र 339 त्यागपूर्वक मनुष्य शरीर को छोड़कर सभी दु:खों से मुक्त हो जाता है। निम्ममो निरहंकारो, वीयरागो अणासवो। संपत्तो केवलंनाणं सासयं परिणिब्दुए। 135.21 || ममत्व व अहंकार रहित वीतरागी निरास्रव होकर और केवलज्ञान को पाकर सदा के लिए सुखी हो जाता है। (ई) सैद्धान्तिक वर्णन 1. मोक्ष मार्ग का स्वरूप और जैन तत्त्व का ज्ञान (मोक्ख मग्गगई-अट्ठाईसवाँ अध्ययन) मनुष्य का आध्यात्मिक लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है। इसके लिए उसे तदनुकूल साधनों की आवश्यकता होती है। उन साधनों का वर्णन इस अध्ययन में है। मोक्ष प्राप्ति के साधन- १. ज्ञान २. दर्शन ३. चारित्र और ४. तप हैं। नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सददहे। चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई।।28.35।। आत्मा के सच्चे स्वरूप को जानना ज्ञान है। दर्शन से तात्पर्य आत्मा के सच्चे स्वरूप पर दृढ विश्वास और श्रद्धा है। चारित्र आत्मगुणों के प्रकटीकरण की क्रिया अथवा कर्मास्रव को रोकने तथा कर्म-निर्जरा की प्रक्रिया है। तप आत्मशुद्धि का साधन है। नत्थि चरित्तं सम्मत्तविहूणं, दंसणे उ भइयव्वं सम्मत्तंचरित्ताई, जुगवं पुव्वं च सम्मत्तं । 28.29 ।। सम्यक्त्व के बिना चारित्र नहीं। दर्शन में चारित्र की भजना है अर्थात् सम्यग्दर्शन होने पर चारित्र हो सकता है और नहीं भी। सम्यक्त्व और चारित्र साथ हों तो भी उसमें सम्यक्त्व पहले होता है। नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुन्ति चरणगुणा। अगुणिस्स णस्थि मोक्खो, णत्थि अमोक्खस्स णिव्वाणं ।।28.30 11 सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान प्राप्त नहीं होता, ज्ञान के अभाव में चारित्र के गुण नहीं होते, गुणों के अभाव में मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के अभाव में निर्वाण प्राप्त नहीं होता। सम्यक्त्व का आलोक प्राप्त होने पर भव्यजीव को सर्वप्रथम मोक्ष की अभिलाषा होती है और लक्ष्य मुक्ति प्राप्ति हो जाता है। महर्षि संयम और तप से पूर्व कर्मों को क्षय करके समस्त दु:खों से रहित होकर मोक्ष पाने का प्रयत्न करते हैं। 2. साधक जीवन अथवा मुमुक्षु के सिद्धान्त (सम्मत्तपरक्कम-उनतीसवाँ अध्ययन) यह अध्ययन आत्मोत्थानकारी उत्तम प्रश्नोत्तरों से युक्त है। इसे सम्यक्त्व पराक्रम अध्ययन कहा जाता है। प्रश्नोत्तर के रूप में ऐसे सिद्धान्त बताए गए हैं जिनसे साधक जीवन अथवा मुमुक्षु की समस्त जिज्ञासाओं का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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