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________________ 288 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क २१ I था। से अथवा शुक्ल- कृष्ण पक्ष के समान एकान्तर क्रम से सदा चलता रहता है | आगमकार ने अवसर्पिणी काल के सुषमा- सुषमा नामक प्रथम आरे का विस्तार से निरूपण किया है। उस काल में मानव का जीवन अत्यन्त सुखी था। उस पर प्रकृति देवी की अपार कृपा थी । उसकी इच्छाएँ स्वल्प थीं और वे स्वल्प इच्छाएँ कल्पवृक्षों के माध्यम से पूर्ण हो जाती थीं। चारों ओर सुख का सागर ठाठें मार रहा था। वे मानव पूर्ण स्वस्थ और प्रसन्न थे। उस युग में पृथ्वी सर्वरसा थी । मानव तीन दिन में एक बार आहार करता था और वह आहार उन्हें उन वृक्षों से ही प्राप्त होता था। मानव वृक्षों के नीचे निवास करता । वे घटादार और छायादार वृक्ष भव्य भवन के सदृश ही प्रतीत होते थे । न तो उस युग में असि थी, न मसी और न ही कृषि थी। मानव पादचारी था, स्वेच्छा से इधर-उधर परिभ्रमण कर प्राकृतिक सौन्दर्य - सुषमा के अपार आनन्द को पाकर आह्लादित था । उस युग के मानवों की आयु तीन पल्योपम की थी। जीवन की सांध्यवेला में छह माह अवशेष रहने पर एक पुत्र और पुत्री समुत्पन्न होते थे। उनपचास दिन वे उसकी सार-सम्भाल करते और अन्त में छींक और उबासी/ जम्हाई के साथ आयु पूर्ण करते। इसी तरह से द्वितीय आरक और तृतीय आरक के दो भागों तक भोगभूमि- अकर्मभूमि काल कहलाता है। क्योंकि इन कालखण्डों में समुत्पन्न होने वाले मानव आदि प्राणियों का जीवन भोगप्रधान रहता है। केवल प्रकृतिप्रदत्त पदार्थों का उपभोग करना ही इनका लक्ष्य होता है । कषाय मन्द होने से उनके जीवन में संक्लेश नहीं होता। भोगभूमि काल को आधुनिक शब्दावली में कहा जाय तो वह 'स्टेट ऑफ नेचर' अर्थात् प्राकृतिक दशा के नाम से पुकारा जायेगा। भोगभूमि के लोग समस्त संस्कारों से शून्य होने पर भी स्वाभाविक रूप से ही सुसंस्कृत होते हैं। घर-द्वार, ग्राम-नगर, राज्य और परिवार नहीं होता और न उनके द्वारा निर्मित नियम होते हैं। प्रकृति ही उनकी नियामक होती है। छह ऋतुओं का चक्र भी उस समय नहीं होता। केवल एक ऋतु ही होती है। उस युग के मानवों का वर्ण स्वर्ण सदृश होता है। अन्य रंग वाले मानवों का पूर्ण अभाव होता है। प्रथम आरक से द्वितीय आरक में पूर्वापेक्षया वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि प्राकृतिक गुणों में शनैः शनैः हीनता आती चली जाती है। द्वितीय आरक में मानव की आयु तीन पल्योपम से कम होती - होती दो पल्योपम की हो जाती है । उसी तरह से तृतीय आरे में भी ह्रास होता चला जाता है। धीरे-धीरे यह हासोन्मुख अवस्था अधिक प्रबल हो जाती है, तब मानव के जीवन में अशान्ति का प्रादुर्भाव होता है। आवश्यकताएँ बढ़ती हैं। उन आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति से पूर्णतया नहीं हो पाती । तब एक युगान्तरकारी प्राकृतिक एवं जैविक परिवर्तन होता है। इस परिवर्तन से अनभिज्ञ मानव भयभीत बन जाता है। उन मानवों को पथ प्रदर्शित करने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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