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________________ 1 274 R ASHTRA जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क से मान्य है। ऐसा उल्लेख सूत्र के प्रारम्भ में निर्दिष्ट मंगल के बाद की दो गाथाओं में भी है जिनको व्याख्याकार आचार्य हरिभद्र व आचार्य मलयगिरि ने अन्य कर्तृक कहा है। उनमें प्रज्ञापनाकर्ता आर्य श्याम को पूर्व श्रुत से समृद्ध भी बताया है। वर्तमान में उपलब्ध इतिहास में तीन कालकाचार्य प्रसिद्ध हैं। प्रथम जो निगोद व्याख्याता के रूप में प्रसिद्ध हैं तथा वीर निर्वाण ३७६ में कालधर्म को प्राप्त हुए। दूसरे गर्दभिल्लोछेदक कालकाचार्य जिनका समय वीर निर्वाण ४५३ के आसपास का है। तीसरे वीर निर्वाण ९९३ में हुए हैं। इनमें से तीसरे कालकाचार्य तो प्रज्ञापना के कर्ता हो ही नहीं सकते, क्योंकि वीर निर्वाण ९९३ तक तो प्रज्ञापना की रचना हो चुकी थी। बाकी दो कालकाचार्यों को कुछ आधुनिक विद्वान एक ही होना मानते हैं। दो मानने पर प्रथम कालकाचार्य को प्रज्ञापना कर्ता मानने की ओर अधिकांश आधुनिक विद्वानों का झुकाव है। प्राचीन ग्रंथपट्टावलियों में भी प्रज्ञापना कर्ता के रूप में इनका ही उल्लेख मिलता है। जैसे-'आद्यः प्रज्ञापनाकृत इन्द्रस्य अग्रे निगोदविचारवक्ता श्यामाचार्यापरनामा (खरतरगच्छीय पट्टावली) इन कालकाचार्य का जन्म वीर निर्वाण संवत् २८०, दीक्षा वीर सं. ३००, युगप्रधान पदवी वीर सं. ३३५, मृत्यु वीर सं. ३७६ में होने का उल्लेख मिलता है। इससे प्रज्ञापना रचना काल वीर सं. ३३५ से ३७६ के बीच कहीं ठहरता है। इन कालकाचार्य का नंदी स्थविरावली में वाचक वंश परम्परा के तेरहवें स्थविर आर्य श्याम के रूप में उल्लेख है। किन्तु प्रज्ञापना सूत्र की प्रारंभ की दो प्रक्षिप्त गाथाएं", जो उनके शिष्य प्रशिष्यों द्वारा कृत संभव लगती है जिनका उल्लेख व्याख्याकार आचार्य हरिभद्र ने भी किया है उनमें आर्य श्याम को वाचकवंश के तेईसवें धीर पुरुष कहा है (वायगवरवसाओ तेवीसइमेणं धीरपुरिसेणं)। इसका समाधान इस प्रकार से किया जाता है कि वाचक वंश परम्परा के तेरहवें पाट पर नंदी स्थविरावली में आर्य श्याम है उनमें से आर्य सुधर्मा को कम करने पर १२ रहे। वाचक वंश प्रमुख ११ ही गणधर भगवंत तथा उनके बाद उनके पाट पर होने वाले बारहवें वाचक वंश प्रमुख आर्य श्याम वाचकवंश परम्परा में तेईसवें धीर पुरुष हो जाते है। ऐसा समाधान ‘विचारश्रेणि' में भी दिया गया है अथवा लिपि प्रमाद से 'तेस्समेणं' की जगह 'तेवीसइमेणं' शब्द हो गया हो यह भी संभव लगता है। __ स्थानकवासी परम्परा ने उनको ही आगम रूप से मान्य किया है जो लगभग दशपूर्वी या उनके ऊपर वालों की रचना हो। नंदीसूत्र में भी स्थविरावली जो कि देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण (देववाचक) द्वारा कृत है को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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