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________________ प्रज्ञापना सूत्र : एक परिचय श्री प्रकाशचन्द जैन श्यामाचार्य द्वारा रचित प्रज्ञापनासूत्र एक प्रमुख उपांगसूत्र है। अंगसूत्रों में जो स्थान व्याख्याप्रज्ञप्ति का है वही स्थान उपांगसूत्रों में प्रज्ञापना सूत्र का है। व्याख्याप्रज्ञप्ति के लिए जहाँ भगवती नाम प्रचलित है, वहाँ प्रज्ञापना के लिए भगवती विशेषण प्रयुक्त हुआ है। इसके ३६ पदों में द्रव्यानुयोग की विषयवस्तु का निरूपण हुआ है, जिसका संक्षेप में निरूपण श्री महावीर जैन स्वाध्याय विद्यापीठ, जलगांव के प्राचार्य श्री प्रकाशचन्द जी जैन ने इस आलेख में किया है। -सम्पादक "अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं" अर्थात् तीर्थकर भगवान अर्थ रूप आगम की प्ररूपणा करते हैं और उन्हीं के व्युत्पन्नमति सुशिष्य चतुर्दश पूर्वधर गणधर उस अर्थ रूप आगम वाणी को सूत्र रूप में गूंथते हैं, जिन्हें अंगसूत्र के नाम से पुकारा जाता है। उन्हीं अंग सूत्रों के आधार पर विषय को विशद करने हेतु कम से कम दस पूर्वधर आचार्यों के द्वारा रचे गये सूत्र उपांग कहलाते हैं। उन उपांगों में चतुर्थ उपांग प्रज्ञापना सूत्र है। अंगसूत्रों में जो स्थान भगवती सूत्र का है, उपांग सूत्रों में वही स्थान प्रज्ञापना का है। प्रज्ञापना का अर्थ है- जीव-अजीव के संबंध में प्ररूपणा। इस सूत्र की रचना आचार्य श्याम ने की है। इसका एक ही अध्ययन है। इसके कुल ३६ पद हैं जिनमें जैन सिद्धान्तों का विस्तृत विवेचन किया गया है। इसकी रचना प्रश्नोत्तर शैली में हुई है। आचार्य मलयगिरि इसे समवायांग का उपांग मानते हैं जबकि आचार्य श्याम इसे दृष्टिवाद का निष्कर्ष कहते हैं। भगवती में अनेक स्थलों पर पन्नवणा की भोलावण दी गई है। इससे प्रज्ञापना की गहनता और व्यापकता स्पष्टत: परिलक्षित होती है। प. दलसुख मालवणिया आदि विद्वान दिगम्बर परम्परा के आगम षट्खण्डागम की तुलना प्रज्ञापना से करते हैं, क्योंकि दोनों ही आगमों का मूलस्रोत पूर्वज्ञान है। दोनों का विषय जीव और कर्म का सैद्धान्तिक दृष्टि से विश्लेषण करना है। दोनों में अल्पबहुत्व, अवगाहना, अन्तर आदि अनेक विषयों का समान रूप से प्रतिपादन किया गया है। इस सूत्र के ३६ पदों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है:1. प्रथम पद प्रज्ञापना में प्रज्ञापना के दो भेद- अजीव व जीव प्रज्ञापना। अजीव प्रज्ञापना में अरूपी अजीव और रूपी अजीव ये दो भेद बताए हैं। जीव प्रज्ञापना में संसारी और सिद्ध जीव के २ भेद बताकर सिद्धों के १५ प्रकार तथा संसारी जीवों के भेद-प्रभेद बताए हैं। 2. द्वितीय स्थानपद में पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेद्रिय, नैरयिक, तिर्यंच, भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिक और सिद्ध जीवों के वासस्थान का वर्णन है। निवास स्थान टो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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