SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्नव्याकरण सूत्र सल्यानमा225 प्रश्न व्याकरण सूत्र में एक श्रुतस्कंध है, दस अध्ययन हैं।'' ऐसा कथन किया है। किन्तु वर्तमान में उपलब्ध यह सूत्र मुख्य रूप से २ भागों में विभक्त है-१. प्रथम खण्ड- इसमें समाविष्ट विषय वस्तु आस्रव द्वार और २. द्वितीय खण्ड-इसकी विषय सामग्री संवर द्वार के रूप में निरूपित है। प्रथम विभाग में हिंसा आदि पाँच आस्रवों का और दूसरे भाग में अहिंसा आदि पाँच संवरों का वर्णन किया गया है। आस्रव और संवर इन दोनों तत्त्वों की नव तत्त्वों में गणना की गई है किसी भी मोक्षार्थी आत्मा के लिए इनका ज्ञान आवश्यक ही नहीं, अपितु साधना-मार्ग पर आगे बढ़ने हेतु अनिवार्य है। आस्रव तत्त्व जहाँ जन्म-मरण रूप भव-परम्परा की वृद्धि का मुख्य कारण है वहीं संवर तत्त्व शुद्ध आत्म दशा (मुक्ति) प्राप्ति का मुख्य हेतु है। किन कारणों से कर्मों का बंध होता है और किन उपायों से कर्मों के बंध का निरोध किया जा सकता है, साधक के लिए इस तथ्य को हृदयंगम कर चलने पर ही इष्ट साध्य की प्राप्ति संभव हो सकती है। इन्हीं प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मार्गों को इसमें स्पष्ट किया है। सूत्र का प्रारम्भिक परिचय- जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, प्रस्तुत शास्त्र में हिंसादि पाँच आस्रवों और अहिंसा आदि पाँच संवरों का कुल १० अध्ययनों में वर्णन है। अध्ययन के वर्ण्य विषय के अनुरूप सार्थक नामों का उल्लेख एवं उनके परिणामों का विस्तार से वर्णन उपलब्ध है। उदाहरणार्थहिंसा आस्रव के अंतर्गत प्राणवध एवं उसका स्वरूप, उसके भिन्न-भिन्न नाम, वह जिस तरह किया जाता है एवं उसके कुफल भोगने आदि का किया गया वर्णन पाठकों एवं स्वाध्यायियों के समक्ष उसका साक्षात् दृश्य उपस्थित करता है। हिंसा-आस्रव के सदृश ही शेष चारों आस्रवों का विशद विवेचन उपलब्ध है। इस प्रकार प्रथम श्रुतस्कंध के पाँच अध्ययनों में क्रमश: हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह आदि आंतरिक विकार रूप रोगों के स्वरूप, उनके द्वारा होने वाले दुःखों, यथा वध, बंधन, कुयोनियों, नीच कुलों में जन्म-मरण करते हुए अनंतकाल तक भव-भ्रमण का चित्रण हुआ इसके विपरीत द्वितीय श्रुतस्कंध में इन उपर्युक्त रोगों से निवृत्ति दिलाने के उपायों का वर्णन है। इसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के स्वरूप और उनके सुखद प्रतिफलों का निरूपण किया गया है। प्रत्येक अध्ययन के प्रतिपाद्य विषय का सार प्रश्नव्याकरण सूत्र पर रचित व्याख्या-ग्रंथों के अनुशीलनोपरांत उपलब्ध तथ्यों के आधार पर अध्ययनों के क्रम में प्रस्तुत है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy