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________________ अनुत्तरौपपातिकदशासूत्र 219 महासेन, दृष्टदन्त, गूढदन्त, शुद्धदन्त, हल, द्रुम, द्रुमसेन, सिंह, सिंहसेन, महासिंहसेन और पुष्यसेन नामक राजकुमारों के विलासपूर्ण जीवन को त्याग कर साधना पथ के पथिक होने का वर्णन है। सभी ने गुणरत्न तप से अपनी आत्मिक शक्ति को पुष्ट करते हुए १६ वर्ष तक संयम-साधना की और अन्त में एक मास का संथारा ग्रहण कर विपुलगिरि पर्वत पर अपनी देह का त्याग किया। दीर्घसेन, महासेन, लष्टदन्त और गूढदन्त 'विजय' नामक अनुत्तर विमान में, शुद्धदन्त और हल्लकुमार 'जयन्त' नामक अनुत्तर विमान में, द्रुम और द्रुमसेन 'अपराजित' नामक अनुत्तर विमान में तथा शेष सभी सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न हुए। वहां से सभी च्यवनकर महाविदेह क्षेत्र से मोक्ष प्राप्त करेंगे। तृतीय वर्ग इस वर्ग के १० अध्ययनों में काकन्दी नगरी की भद्रा सार्थवाही के १० पुत्रों का वर्णन है। धन्यकुमार, सुनक्षत्रकुमार, ऋषिदास, पेल्लक, रामपुत्र, चन्द्रिक, पृष्टिमातृक, पेढालपुत्र, पोटिल्ल और वेहल्ल नामक दस कुमारों ने भगवान महावीर के उपदेश से सांसारिक भोगों में क्षणिकता का ज्ञान होते ही ऐन्द्रिक विषय-विकारों को सांप की केंचुली के समान त्याग दिया। धन्य अणगार के जीवन का सांगोपांग वर्णन प्रथम अध्ययन में मिलता है। विपुल सांसारिक ऋद्धि से सम्पन्न धन्य कुमार का विवाह ३२ श्रेष्ठ कन्याओं के साथ सम्पन्न हुआ। दहेज में उन्हें ३२-३२ वस्तुएँ प्रदान की गई। यथा- बत्तीस कोटि चांदी व सोने के सिक्के, बत्तीस मुकुट-हाररेशमी वस्त्र-ध्वज-गोकुल गांव-उत्तम यान-उत्तम दास-उत्तम दासियाँ-थालकटोरे-चम्मच-छत्र आदि। मनोज्ञ भोगों में लिप्त धन्य अणगार भगवान के दर्शन कर और वचनों को सुनकर जिनवाणी में अनुरक्त हुए। माता से आज्ञा प्राप्त कर दीक्षा ली और दीक्षित होते ही षष्ठ बेला तप और आयम्बिल के पारणे से अपने शरीर और कर्म को कृश करते हुए संयम की आराधना करने लगे। निरन्तर कठोर तप की आराधना करते हुए उनका शरीर हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया था। इस अध्ययन में धन्य अणगार के शरीर के अंगों की तुलना मुरझाए हुए फूल से, ऊँट-बैल के खुर से, मेहंदी की गुटिका से, मुंग व उड़द की फली से और सूखे हुए सर्प आदि विभिन्न पदार्थों से की है। शरीर की इतनी दुर्बलता के बावजूद भी उनके मन के संकल्प की सबलता अनुपम थी। ९ मास तक संयम साधना की। अन्त में एक मास का संथारा पूर्ण कर सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए। सुनक्षत्र से पोटिल्ल तक के ८ राजकुमारों की दीक्षापर्याय बहुत वर्षों की थी तथा वेहल्ल की ६ मास की थी। शेष वर्णन धन्यकुमार के समान है। विशेषता यही है कि-ऋषिदास और पेल्लक राजगृह नगर में, रामपुत्र और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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