SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विभिन्न जैन सम्प्रदायों में मान्य आगम डॉ. सागरमल जैन ने 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' पुस्तक षट्खण्डागम, कसायपाहुड, मूलाचार एवं भगवती आराधना को यापनीय सम्प्रदाय के ग्रन्थ सिद्ध किया है। वे इन्हें दिगम्बर ग्रन्थ नहीं मानकर यापनीय ग्रन्थ मानते हैं। आगमों के संबंध में कतिपय बिन्दु * अर्थरूप प्ररूपण की दृष्टि से सभी तीर्थंकरों के आगम एक जैसे होते हैं, इस दृष्टि से आगमों को शाश्वत भी कहा जाता है, किन्तु शब्द की दृष्टि से प्रत्येक तीर्थंकर के काल में आगमों का ग्रथन या निर्माण किया जाता है । वर्तमान में उपलब्ध अंग- आगम गणधर सुधर्मास्वामी द्वारा ग्रथित हैं, किन्तु उपांग, मूल, छेद आदि अंगबाह्य सूत्र स्थविर कृत हैं। स्मरणशक्ति में आयी शिथिलता के कारण इन आगमों की पाँच बार वाचनाएँ हुई । अन्तिम वाचना देवर्द्धिगण क्षमाश्रमण के समय वीर निर्वाण संवत् ९८० में हुई। उन्होंने वाचना के अन्तर्गत आगमों का सर्वथा नया लेखन नहीं किया, परन्तु पूर्व प्रचलित आगमों को ही लिपिबद्ध कराया। जहाँ आवश्यक था वहाँ सम्पादन भी किया। दिगम्बर परम्परा भले ही श्वेताम्बर आगमों को मान्य नहीं करती हो, किन्तु स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि दो-चार बातों को छोड़कर श्वेताम्बरों एवं दिगम्बरों में कोई मतभेद नहीं है। इसी प्रकार श्वेताम्बर मूर्तिपूजकों के साथ तेरापंथ एवं स्थानकवासियों का मूर्तिपूजा के बिन्दु के अतिरिक्त कोई विशेष मतभेद नहीं है । स्थानकवासियों एवं तेरापंथियों के तो आगम पूर्णत: समान हैं । इनमें जो मतभेद उभरकर आते हैं, वे व्याख्यागत मतभेद हैं। जैनदर्शन के सभी सम्प्रदायों में मूल दार्शनिक मान्यताओं में प्रायः एकरूपता है, जो भेद है वह आचारगत भेद है। वह आचार सम्बन्धी भेद ही फिर दार्शनिक रूप से विकसित हुए हैं। आगमों का अध्ययन सबके लिए समान रूप से उपादेय है। एक दूसरे की परम्परा के आगमों का अध्ययन करने से मिथ्यात्व नहीं लगता है। मिथ्यात्व तो दृष्टि में होता है, उससे बचना चाहिए। आगमों में से भी जीवन-शोधक तत्त्वों को ग्रहण करने की दृष्टि रहनी चाहिए, उनमें आयी कतिपय बातों को छोड़कर परस्पर विवाद नहीं करना चाहिए। आगमों का अध्ययन तो जीवन को आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत बनाता है। आगमों में संस्कृति, इतिहास, खगोल, भूगोल, दर्शन, साहित्य- शास्त्र, कला, मनोविज्ञान, प्राणिशास्त्र, वनस्पतिविज्ञान, भौतिक शास्त्र आदि विविध विषयों की भी जानकारी मिलती है। -सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy