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________________ | 176 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क ६. इसमें नारक की रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों, नारक जीवों एवं देवों का विशिष्ट वर्णन उपलब्ध है। ७. वनस्पति के वर्णन हेतु इसमें कई शतक हैं। शतक ११, शतक २१, शतक २२ एवं शतक २३ में वनस्पतिकायिक जीवों यथा- उत्पल, शलूक, पलाश, कुम्भिक, पद्म, कणिका, नलिन, शालि, अलसी, वंश, इक्ष, दर्भ, अभ्र, तुलसी आदि का रोचक वर्णन है। ८. इसमें १८ पापों एवं उनमें वर्ण आदि का भी प्ररूपण है। ९. गोशालक का शतक १५ में विस्तृत वर्णन है। इसके अतिरिक्त शिवराजर्षि(शतक ११ उद्देशक९), जमालि (शतक ९.३३,२२.११२, ११.९, ११.११,१३.६), स्कन्द परिव्राजक, तामली तापस (शतक ३.१, ३.२, ११.९) आदि का भी वर्णन है। १०. लेश्या, विकुर्वणा, समुद्घात, इन्द्रिय, अश्रुत्वा केवली, स्वप्न, क्रिया, उपपात, काल, भाषा, केवली, ज्ञान आदि के संबंध में भी इस सूत्र में विशष्ट जानकारियाँ हैं, जो ज्ञानवर्धन में सहायक हैं। ११. इसमें कई नये पारिभाषिक शब्द हैं, यथा- कल्योज, द्वापरयुग्म, त्र्योज, अनन्तरोपपन्नक, परम्परोपपन्नक, अनन्तरावगाढ, परम्परावगाढ, क्षुद्रयुग्म आदि। १२. कर्म-सिद्धान्त, बन्ध, आस्रव, आयु आदि के संबंध में भी यह आगम नवीन सूचनाएं देता है। १३. इस आगम में ज्ञान के विविध क्षेत्र जिस सूक्ष्मता से स्पृष्ट हैं वे अपने आपमें अद्भुत हैं। व्याख्या-साहित्य भगवतीसूत्र पर न नियुक्ति उपलब्ध है, न ही कोई भाष्य। एक अतिलघु चूर्णि है, जिसके प्रकाशन का प्रारम्भ लाडनूँ से प्रकाशित भगवई में हुआ है। इस चूर्णि के रचयिता जिनदास महत्तर को स्वीकार किया गया है। यह चूर्णि प्राकृत प्रधान है। नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि की वृत्ति इस आगम पर उपलब्ध है। इसका ग्रन्थमान अनुष्टुप् श्लोक के परिमाण से १८६१६ है। इस वृत्ति से भगवती सूत्र के रहस्यों को समझने में सरलता होती है। इसे विक्रम संवत् ११२८ में अणहिल पाब्ण नगर में पूर्ण किया गया था। व्याख्याप्रज्ञप्ति पर दूसरी वृत्ति मलयगिरि की है जो द्वितीय शतक वृत्ति के रूप में जानी जाती है। विक्रम संवत् १५८३ में हर्षकुल ने टीका लिखी। दानशेखर ने लघुवृत्ति लिखी। भावसागर एवं पद्मसुन्दरगणि ने भी व्याख्याएँ लिखी हैं। धर्मसिंह जी द्वारा व्याख्याप्रज्ञप्ति पर टब्बा लिखे जाने की भी सूचना मिलती है। पूज्य घासीलाल जी महाराज ने भी इस पर संस्कृत में व्याख्या का लेखन किया है। आचार्य महाप्रज्ञ ने हिन्दी में भाष्य-लेखन किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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