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________________ समवायांग सूत्र - एक परिचय का 1631 उत्तराध्ययन सूत्र के छत्तीस अध्ययन आदि, सैंतीसवें में सैंतीस गणधर, सैंतीस गण, अड़तीसवें में भ. पार्श्वनाथ की अड़तीस हजार श्रमणियाँ, उनतालीसवें में भ. नेमिनाथ के उनतालीस सौ अवधिज्ञानी, चालीसवें में भ. अरिष्टनेमि की चालीस हजार श्रमणियाँ, इकतालीसवें में भगवान नमिनाथ की इकतालीस हजार श्रमणियाँ, बयालीसवें में नाम कर्म की ४२ प्रकृतियाँ, भ. महावीर की ४२ वर्ष से कुछ अधिक दीक्षा पर्याय, तेतालीसवें में कर्म विपाक के ४३ अध्ययन, चौवालीसवें में ऋषिभाषित के ४४ अध्ययन, पैंतालीसवें में मानव क्षेत्र, सीमान्त नरकावास, उडु विमान (पहले-दूसरे देवलोक के मध्यभाग में रहा गोल विमान) और सिद्ध शिला, इन चारों में प्रत्येक का विस्तार ४५ लाख योजन का बतलाया गया है। छियालीसवें में दृष्टिवाद के ४६ मातृकापद और ब्राह्मीलिपि के ४६ मातकाक्षर, सैंतालीसवें में स्थविर अग्निभति के ४७ वर्ष गहवास में रहना अड़तालीसवें में भ. धर्मनाथ के ४८ गणों, गणधरों का, उनपचासवें में त्रीन्द्रिय जीवों की ४९ अहोरात्रि की स्थिति, पचासवें में भ. मुनिसुव्रत की ५० हजार श्रमणियाँ इक्यानवें में नव ब्रह्मचर्यों के५१ उद्देशन काल. बावनवें में मोहनीय कर्म के ५२ नाम, तिरेपनवें में भ. महावीर के ५३ साधुओं का एक वर्ष की दीक्षा के बाद अनुत्तर विमान में जाना, चौपनवें में भरत ऐवत क्षेत्र के ५४-५४ उत्तम पुरुष, भ. अरिष्टनेमि ५४ रात्रि तक छद्मस्थ रहे, पचपनवें में मल्ली भगवती की ५५ हजार वर्ष की कुल आयु, छप्पनवें में भ. विमलनाथ के ५६ गण व गणधर, सत्तानवें में मल्ली भगवती के ५७०० मन पर्यवज्ञानी श्रमण, अट्ठानवें में ज्ञानावरणीय, वेदनीय, आयु, नाम और अन्तराय इन पांच कर्मों की ५८ उत्तर प्रकृतियां, उनसठवें में चन्द्र संवत्सर की एक ऋतु में ५९ अहोरात्रि तथा साठवें समवाय में सूर्य का ६० मुहूर्त तक एक मण्डल में रहने का उल्लेख है। .. . इकसठवें से सौवाँ समवाय इकसठवें समवाय में एक युग में ६१ ऋतु मास, बासठवें में भगवान वासुपूज्य के ६२ गण व गणधर, तिरेसठवें में भ. ऋषभदेव के ६३ लाख पूर्व तक राज्य सिंहासन पर रहने के पश्चात् दीक्षा लेना, चौसठवें में चक्रवर्ती के बहुमूल्य ६४ हारों का, पैसठवें में मौर्यपुत्र गणधर के द्वारा ६५ वर्ष तक गृहवास रहकर दीक्षा लेना, छियासठवें में भ. श्रेयांसनाथ के ६६ गण और ६६ गणधर, मतिज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागर, सड़सठवें में एक युग में नक्षत्र मास की गणना से ६७ मास, अड़सठवें में धातकीखण्ड में चक्रवर्ती की ६८ विजय, राजधानियाँ और उत्कृष्ट ६८ अरिहन्त होना, उनहतरवें में मानवलोक में मेरु के अलावा ६९ वर्ष और वर्षधर पर्वत, सत्तरवें में एक मास और बीस रात्रि व्यतीत होने पर तथा ७० रात्रि शेष रहने पर पर्युषण करने का उल्लेख है। इकहतरवें समवाय में भ. अजितनाथ व सागर चक्रवर्ती का ७१ लाख पूर्व तक गृहवास में रहकर दीक्षित होना, बहत्तरहवें में भ. महावीर की आयु ७२ वर्ष होना, पुरुषों की ७२ कलाएँ, तिहतरवें में विजय नामक बलदेव द्वारा ७३ लाख की आयु पूर्ण कर सिद्ध होना, चौहतरवें में अग्निभूति द्वारा ७४ वर्ष की आयु पूर्ण कर सिद्ध होना, पचहतरवें में भ. सुविधि नाथ जी के ७५०० केवली होना वर्णित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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