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________________ | 160. जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क और बलिचंचा राजधानी का सोलह हजार योजन का विस्तार, नारकी व देवों की सोलह पल्योपम तथा सोलह सागरोपम की स्थिति का वर्णन होने के साथ ही सोलह भव करके मोक्ष जाने वाले भवसिद्धिक जीवों का कथन भी उपलब्ध है। सतरहवाँ समवाय सतरहवें समवाय में सतरह प्रकार का संयम और असंयम, मानुषोत्तर पर्वत की ऊँचाई सतरह सौ इक्कीस योजन, सतरह प्रकार का मरण, दसवें सूक्ष्म संपराय गुणस्थान में सतरह प्रकृतियों का बंध, नारकी देवों की सतरह पल्योपम और सतरह सागरोपम की स्थिति का वर्णन करते हुए सतरह भव ग्रहण कर मोक्ष जाने वाले जीवों का भी उल्लेख किया गया है। अठारहवाँ समवाय अठारहवें समवाय में ब्रह्मचर्य के अठारह प्रकार, अरिष्टनेमि जी के अठारह हजार श्रमण, क्षुल्लक साधुओं के अठारह संयम-स्थान, आचारांग सूत्र के अठारह हजार पद, ब्राह्मीलिपि के अठारह प्रकार, अस्तिनास्ति प्रवाद पूर्व के अठारह अधिकार, पौष व आसाढ़ मास में अठारह मुहूर्त के दिन व अठारह मुहूर्त की रात, नारकों व देवों की अठारह पल्योपम व अठारह सागरोपम की स्थिति का वर्णन करने के उपरान्त अठारह भव करके मोक्ष में जाने वाले जीवों का भी कथन किया गया है। उन्नीसवाँ समवाय उन्नीसवें समवाय में ज्ञाताधर्मकथांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन कहे गये हैं तथा फिर कहा गया है कि जम्बूद्वीप का सूर्य उन्नीस सौ योजन के क्षेत्र को संतप्त करता है, शुक्र उन्नीस नक्षत्रों के साथ अस्त होता है, उन्नीस तीर्थकर गृहवास में रहकर (राज्य करने के पश्चात्) दीक्षित हुए। नारकों व देवों की उन्नीस पल्योपम व उन्नीस सागरोपम की स्थिति का उल्लेख किया गया बीसवाँ समवाय बीसवें समवाय में बीस असमाधि स्थान, मुनिसुव्रत स्वामी की बीस धनुष की ऊँचाई, घनोदधि वातवलय की मोटाई बीस हजार योजन, प्राणत देवलोक के इन्द्र के बीस हजार सामानिक देव, प्रत्याख्यान पूर्व के बीस अर्थाधिकार एवं बीस कोटाकोटि सागरोपम का कालचक्र निरूपित किया गया है। किन्हीं नारकों व देवों की स्थिति बीस पल्योपम व बीस सागरोपम की बताई गई है। इक्कीसवाँ समवाय इक्कीसवें समवाय में इक्कीस सबल दोष (चारित्र को दूषित करने वाले कार्य), सात प्रकृतियों का क्षय करने वाले साधक के निवृत्ति बादर गुणस्थान में इक्कीस प्रकृतियों की सत्ता, अवसर्पिणी काल के पांचवें, छठे आरे तथा उत्सर्पिणी के प्रथम व द्वितीय आरे इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष के होने का उल्लेख है। कुछ नारकों और देवों की इक्कीस पल्योपम व इक्कीस सागरोपम की स्थिति बतलायी बाईसवाँ समवाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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