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________________ स्थानांग सूत्र का प्रतिपाद्य है जैसा कि भगवती सूत्र शतक २०, उद्देशक २, सूत्र ६६४ से ज्ञात होता है। स्थानाग सूत्र में प्रक्षिप्त अंश अन्य आगमों के समान स्थानांग सूत्र को देखने से ज्ञात होता है कि सम्यग्दृष्टि-सम्पन्न गीतार्थ मुनीश्वरों ने भगवान् महावीर के समय से प्राप्त श्रुतधारा में यत्र-तत्र कुछ हानि एवं वृद्धि अवश्य की है। उदाहरण के रूप में स्थानांग सूत्र के नौवें स्थान में भगवान महावीर के नौ गणों का उल्लेख किया गया है। जिनके नाम है- गोदासगण, उत्तरबलिस्सहगण, उद्देहगण, चारणगण, ऊर्ध्ववातिकगण, विश्ववातिगण, कामड्ढितगण, माणवगण और कोडिनगण। कल्पसूत्र में कामड्ढितगण का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता। यदि कल्पसूत्र वर्णित कामड्ढित कुल से इसकी उत्पत्ति मान भी ली जाय तो भी इन सब गणों का निर्माण भगवान महावीर के काल से लगभग दो सौ वर्ष से लेकर पाँच सौ वर्ष बाद तक माना जाता है, अत: स्थानांग सूत्र में इनका उल्लेख गणों के निर्माण के बाद ही हुआ होगा और इसे किसी गीतार्थ मुनि की संयोजना ही कहा जा सकता है। इसी प्रकार स्थानांग में सात निन्हवों का उल्लेख मिलता है जिनके नाम हैं- जमालि, तिष्यगुप्त, आषाढ़, अश्वमित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्ठामाहिल। इनमें से जमालि और तिष्यगुप्त तो भगवान महावीर के समकालीन थे, परन्तु शेष निहवों का काल भगवान महावीर के निर्वाण वर्ष के तीन सौ साल से लेकर छ: सौ साल बाद तक का माना जाता है। ऐसी दशा में स्थानांग के भीतर इनका उल्लेख इसमें होनेवाली वृद्धि का प्रमाण ही उपस्थित करता है। अत: क्षमाश्रमण देवर्द्धिगणी तक अन्य शास्त्रों के समान स्थानांग में भी हानि-वृद्धि स्वीकार की जा सकती है। इसके अनन्तर शास्त्रों का रूप स्थिर हो गया होगा,ऐसा प्रतीत होता है। प्रतिपाद्य विषय की विविधता __ यह कहना अत्युक्ति न होगी कि स्थानांग प्रतिपाद्य विषय के वैविध्य की दृष्टि से विश्वकोष है। जो इस महाग्रन्थ में है उसका विस्तार अन्य सभी आगमों में विद्यमान है और जो सभी आगमों में है वह अकेले स्थानांग में है। तीर्थंकर- स्थानांग में बीस तीर्थंकरों के नाम प्राप्त होते हैं, जैसे- श्री ऋषभदेव, श्री संभवजी, श्री अभिनन्दन जी, श्री पद्मप्रभ जी, श्री चन्द्रप्रभ जी, श्री पुष्पदन्त जी, श्री शीतलनाथ जी, श्री वासुपूज्य जी, श्री विमल जी, श्री अनन्तप्रभु जी, श्री धर्मनाथ जी, श्री शान्तिनाथ जी, श्री कुंथुनाथ जी, श्री अरनाथ जी, श्री मल्लिनाथ जी, श्री मुनिसुव्रत जी, श्री नमिनाथ जी, श्री अरिष्टनेमि जी, श्री पार्श्वनाथ जी, श्री महावीर स्वामी। इन बीस तीर्थकरों का आयु, देहमान, अन्तर आदि की दृष्टि से जिसका जिस स्थान में वर्णन हो सका है वह किया गया है। परन्तु वर्ण्य विषय के रूप में श्री अजित नाथ जी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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