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________________ विद्वान् मतभेद के कारण उतना महत्त्व नहीं देते, जैसे खंडेलवाल जाति का इतिहास' नामक पुस्तक के लेखक स्व. डॉ. कस्तूरचंद जी कासलीवाल ने पंडित जी का परिचय अत्यन्त-संक्षेप में दिया है। सब जानते हैं कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। स्व. डॉ. ज्योतिप्रसाद जी का 'प्राचीन जैन विश्वविद्यालय'-विषयक शोधपूर्ण लेख देकर आपने मनीषियों के लिए प्रेरणादायी सेवा की है। इसीतरह भारतवर्ष के नाम के विषय में वैदिक पुराणग्रन्थों के प्रमाण महत्त्वपूर्ण हैं। आपका सम्पादकीयं 'ध्वज से दिशाबोध' भी समाज के लिए अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इसकी तो छोटी-सी पुस्तिका प्रत्येक गाँव और घरों में पहुंचनी चाहिये । शोध तथा सामाजिक विकास की दृष्टि से 'प्राकृतविद्या' एक संग्रहणीय-दस्तावेज जैसी पत्रिका है। पूज्य आचार्य विद्यानन्द जी मुनिराज के पावन आशीर्वाद से इसकी प्राणवायु जन-जन तक पहुंचेगी, इसमें संदेह नहीं। -जमना लाल जैन, अभय कुटीर, सारनाथ, वाराणसी ** ० 'प्राकृतविद्या', (अक्तूबर-दिसम्बर '01) का अंक 3 मिला। शोध की दिशा में यह त्रैमासिकी 'मील का पत्थर' है। -पं. निहालचन्द जैन, बीना (म.प्र.) ** ● 'प्राकृतविद्या', (अक्तूबर-दिसम्बर '01) का अंक स्वाध्याय करने का अवसर मिला। आवरण-पृष्ठ पर मुद्रित 'पंचवर्णी ध्वज' बहुत सुन्दर है, तथा 'ध्वज से दिशाबोध' पंचवर्णी ध्वज का महत्त्व की मुझे भी नहीं, सारे जैनों को सिखाया है। इसतरह महत्त्वपूर्ण विषयों को बार-बार देने की कष्ट करें। -वी. विमलनाथन जैन, तमिलनाडु ** ० आपका प्रयत्न प्राकृत-पन्नों पर अंकित शौरसेनी की महिमा गाने में पीछे नहीं रहता। इसके प्रत्येक अंक गौरवान्वित करनेवाले विविध-सन्दर्भ की सूचना दे रहे हैं। साहित्यिक-क्षेत्र में दृष्टि सर्वोपरि है और सर्वोपरि बनी रहेगी, जिसने संवर्धन को दिशा दी और साहित्यकारों को नए-नए सूत्र दिए। __ आशा है 'प्राकृतविद्या' प्राकृत-जगत् अर्थात् जन-साधारण में जिस रूप में प्रचलित हो रही है, वह मात्र मेहनत का फल नहीं, अपितु सफल-संपादन की कला का है। -डॉ० उदयचंद जैन, उदयपुर (राज.) ** ० 'प्राकृतविद्या' का नवीनतम अंक मिला। आद्योपान्त पढ़ गई हूँ। सदा की तरह उत्कृष्ट संपादन है। कुछ लेखों का विशेषरूप से उल्लेख करना चाहूँगी। आचार्य विद्यानन्द मुनिराज जी के दोनों लेख बहुत सूचनापरक तथा प्रेरणास्पद है। 'पिच्छि और कमण्डलु' में दोनों के विषय में विस्तार से सूचनायें तथा उनकी जैन-मुनियों के लिए उपयोगितायें बताई गई हैं। 'उत्तम संयम. महाव्रत' लेख श्रेष्ठ है तथा सर्वसाधारण के लिए भी 'संयम' की आवश्यकता पर बल देता है। श्री प्रकाशचंद शास्त्री 'हितैषी' के प्रस्तुत भाषण (जो आपने प्रकाशित किया है) में सच्चे विद्वान् की परिभाषा, निर्मल चरित्र तथा विश्वमैत्रीभाव के आदर्श सुन्दर रूप में प्रस्तुत हुए हैं तथा आज के युग में उनकी प्रासंगिकता भी कम नहीं। आनन्द 00 180 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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