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________________ प्रव्रज्या (गृहविरत भ्रमण) और साधुत्व का विधान है, उसके परिपालन के लिए एक साधक द्वारी अपनाये गये अभ्यासों और आदर्शों में सर्वथा-परिवर्तन केवल तत्कालीन आध्यात्मिक-उपदेश के फलस्वरूप या अनिवार्य तर्कसंगत-परिमाण के कारण नहीं आ सकता। इसके साथ-ही-साथ'संबहुला नानातिट्ठिया नानादिट्ठका नानाखंतिका नानारुचिका नानाट्ठि-निस्सयनिस्सिता'-(बड़े गणों में चलने वाले, विभिन्न उपदेष्टाओं का अनुगमन करनेवाले विभिन्न मान्यतायें रखनेवाले, विभिन्न आचारों का पालन करनेवाले, विभिन्न रुचियोंवाले और विभिन्न आध्यात्मिक मान्यताओं पर दृढ़ विश्वास रखनेवाले) साधुगणों के तत्कालीनसाहित्य में जो बहत-से निश्चित और निरन्तर उल्लेख आये हैं, उन्हें देखते हुए यह सोचना उचित होगा कि इस विशेषता के अकस्मात् सामने आने के कुछ जाने-पहचाने बहिरंग-कारण भी हैं। इनमें से एक यह है कि आर्य-संस्कृति के मार्गदर्शक सामूहिकरूप से जब पूर्व-दिशा में बढे, तब वे किन्हीं ऐसी जातियों के सम्पर्क में आये, जो किसी दूसरे ही सोपान पर खड़ी थीं। इस दूसरे माध्यम से प्राप्त की गयी भ्रमणशील-साधुओं की संस्था में, स्वभावत:, इसकारण से कुछ परिवर्तन आया होगा कि वह आर्यों की आचार-संहिता और अनुशासन के शेष-भाग में घुल-मिल सके, किन्तु इस नवोदित-संस्था की उत्तराधिकार में प्राप्त-प्रवृत्ति कालान्तर में प्रतिष्ठापित-मानदण्डों को नकारने के लिए विवश हुई। यहाँ तक कि ऐसे समय जब यह संस्था समाज से अलग-अलग वन-प्रान्तरों या पर्वत-कन्दराओं में रह रही थी, उसने दर्शन का उपदेश घर-घर जाकर देना आरम्भ कर दिया और परम्परा से परिचित शिक्षित- वर्ग से अपना सम्पर्क न्यूनतर कर लिया, जिसके फलस्वरूप विभिन्न मान्यताओं और रुचियोंवाले बुद्धिजीवियों में निश्चितरूप से अभीष्ट-परिवर्तन आया। उपनिषदुत्तरकाल के अध्ययन के स्रोत के रूप में मान्य-ग्रन्थों अर्थात् जैन और बौद्ध-आगमों तथा आंशिकरूप से 'महाभारत' में ऐसे विभिन्न चैत्यवासियों, साध्वियों और श्रमणों के विशद-प्रसंग भरे पड़े हैं, जो सब प्रकार के विषयों पर बौद्धिक विचार-विमर्श तथा आत्मिक अनुसन्धान में संलग्न रहते थे, प्रत्येक मुख्य-उपदेष्टा या गणाचार्य अधिकतम गणों या शिष्यों को आकृष्ट करने के लिए प्रयत्नशील रहता था; क्योंकि उनकी संख्या उस उपदेष्टा की योग्यता की सूचक मानी जाती थी।' ब्राह्मण-साधुवृत्ति से सर्वथा भिन्न जैन-मुनिसंघ की स्वतन्त्र-प्रकृति और उद्भव को भली-भाँति समझने में इस लम्बे कथानक से पर्याप्त-सहायता मिलती है। श्रमणों का यह मार्ग सम्पूर्ण-निवृत्ति (सांसारिक जीवन से पूर्णतया पराङ्मुखता) और समस्त अनगारत्व (गृहत्यागी की अवस्था) तथा अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य का समन्वितरूप है। मन (मनस्), शरीर (काय), और वाणी (वाक्) के सबप्रकार से निरोध अर्थात् त्रिगुप्ति की धारणा से साधुत्व का आदर्श इस सीमा तक अधिक निखर उठता है कि वह निरन्तर उपवास (सल्लेखना) में प्रतिफलित हो जाता है, जिसका विधान इस धर्म के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म में नहीं है। जैन-साधुत्व के ऐसे ही अद्वितीय-आचारों में आलोचना अर्थात् अपने पापों की 00 136 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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