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________________ के उद्धार के विषय में कोई नियम-कानून गढ़ते। उनके पास तोप-तलवार भी नहीं थी, जिसका पुरुषों को भय दिखाकर वे नारियों का उद्धार करते। उनके हाथ में तो मात्र एक ही बल था – आत्मबल, दृढ़ इच्छाशक्ति तथा त्याग और तपस्या का चमत्कार, उसी से उन्होंने लोगों का हृदय-परिवर्तन किया और उसी से उन्होंने नारी का उद्धार किया। इसप्रकार मैंने भगवान् महावीर द्वारा ऊर्जस्वित एवं जागृत नारी-समाज के विषय में चर्चा की। जैन-संस्कृति एवं इतिहास के क्षेत्र में उनके बहुआयामी संरचनात्मक-योगदानों के कारण उन्होंने समाज एवं राष्ट्र को और गौरव प्रदान किया है, वह पिछली अढ़ाई सहस्राब्दियों का एक स्वर्णिम अध्याय है। आवश्यकता इस बात की है कि यदि कोई शोधार्थी छात्र या छात्रा इस धैर्यसाध्य-क्षेत्र में विश्वविद्यालय-स्तर का विस्ततं शोधकार्य करें, तो उससे अतीतकालीन जैन नारी-समाज के राष्ट्र के निर्माण में योगदान-सम्बन्धी विपुल-सामग्री प्रकाश में आ सकेगी, जो अगली पीढ़ी के लिये प्रकाशस्तम्भ का कार्य करेगी। ** जय जिनेन्द्र आज से लगभग 175 वर्ष पूर्व विक्रम संवत् 1884 में ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी मंगलवार को कविवर पं. वृन्दावनदासजी ने काशी से दीवान अमरचन्दजी को जयपुर पत्र लिखा था। इसमें उन्होंने पत्र के प्रारम्भ में दीवान साहब को 'जय जिनेन्द्र' कहकर सम्बोधित किया है “वृन्दावन तुमको कहत, श्रीमत जयति जिनन्द । काशीतें सो बांचियो, अमरचन्द सुखकन्द ।।" – (वन्दावन-विलास) __ और इतना ही नहीं, अन्त में उन्होंने पुन: ऋषभदास, घासीराम आदि समाज के अन्य प्रमुख पंच लोगों को भी 'जय जिनेन्द्र' कहकर ही अभिवादन किया है— "रिषभदास पुनि घासीराम। और पंच जे सुगुन-निधान ।। विगति विगति श्री जयति जिनंद । कहियौ सबसौं धरि आनन्द ।।" -(वही) इसस स्पष्ट होता है कि वर्तमान में जो पारस्परिक अभिनन्दन-अभिवादन-हेतु 'जयजिनेन्द्र' कहने का व्यवहार प्रचलित है, वह कोई एकदम नई-परिपाटी नहीं है, अपितु कम से कम दो सौ वर्ष प्राचीन अवश्य है। खोज करने पर और भी प्राचीन-प्रमाण प्राप्त हो सकते हैं। महावीर-वन्दना "संसारदावानलं मेघनीरं सम्मोहधूलीहरणे समीरम् । मायारसादारणसारसीरं नमामि वीरं गिरिराजधीरम् ।। 4 ।।" प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 119 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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