SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ __ अचेलता में कषाय का अभाव है, चोरों के डर से वस्त्र को छिपाने से मायाचार होता है अथवा चोरों के डर से या धोखा देने के लिए कुमार्ग से जाना पड़ता है या झाड़-झंखाड़ में छिपना होता है। मेरे पास वस्त्र है' ऐसा अहंकार होता है। यदि कोई बलपूर्वक वस्त्र छीने, तो उसके साथ कलह होता है। वस्त्र-लाभ होने से लोभ होता है। इसप्रकार वस्त्र धारण करनेवालों के ये दोष है। वस्त्र त्यागकर अचेल होने पर इसप्रकार के दोष उत्पन्न नहीं हैं तथा ध्यान-स्वाध्याय में किसी प्रकार का विघ्न नहीं होता। __ अचेल के संबंध में बताते हुए आचार्य ने कहा है— “जैसे धान के छिलके को दूर करना उसके अभ्यंतर-मल को दूर करने का उपाय है। बिना छिलके का धान नियम से शुद्ध होता है; किन्तु जिस पर छिलका लगा है, उसकी शुद्धि नियम से नहीं होती है।” ____ अचेलता में राग-द्वेष का अभाव एक गुण है; जो वस्त्र धारण करता है, वह मन के प्रिय-वस्त्र से राग करता है और मन को अप्रिय-वस्त्र से द्वेष करता है। अचेलता में स्वाधीनता भी एक गुण है, क्योंकि देशान्तर आदि में सहायक की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। समस्त परिग्रह का त्यागी पिच्छी मात्र लेकर पक्षी की तरह चल देता है। अचेलता में निर्भयता गुण है। चोर आदि मेरा क्या हर लेंगे, क्यों वे मुझे मारेंगे या बाँधेगे? किन्तु सवस्त्र डरता है और जो डरता है, वह क्या नहीं करता? सर्वत्र विश्वास ही अचेलता का गुण है। जिसके पास कोई परिग्रह नहीं, वह किसी पर भी शंका नहीं करता। किन्तु जो सवस्त्र है, वह तो मार्ग में चलनेवाले प्रत्येक व्यक्ति पर अथवा अन्य किसी को देखकर उस पर विश्वास नहीं करता। __इसप्रकार वस्त्र में दोष और अचेलता में अपरिमित-गुण होने से अचेलता ही वह महत्त्वपूर्ण-सीढ़ी है, जो कि मोक्ष तक पहुँचा सकती है और जन्म-मरण के दु:ख-भरे चक्रव्यूह से बचा सकती है। तीर्थंकरों के मार्ग का आचरण करना भी अचेलकता का गुण है। संहनन और बल से पूर्ण तथा मुक्ति के मार्ग का उपदेश देने में तत्पर सभी तीर्थंकर अचेल थे तथा भविष्य में भी अचेल ही होंगे “णग्गस्स य मुंडस्स य दीहलोम-णखस्स य। मेहणादो विरत्तस्स किं विभूसा करिस्सदि।।" - (दशवैकालिक सूत्र) अर्थ :- नग्न, मुण्डित और दीर्घ नख और रोमवाले, मैथुन से विरक्त-साधु को आभूषणों से क्या प्रयोजन है? ऐसे सभी त्रिकालवर्ती अचेल साधुओं को शत-शत वंदन! कर्मनाश और ज्ञानप्रकाश 'ज्ञान दीप तप-तेल भरि, घर शोधैं भ्रम छोर। या विध बिन निकसैं नहीं, बैठे पूरव चोर।। 00 114 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy