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________________ वि० सं० ४२४-४४० वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पुत्र चार भाई और उनकी स्त्रिये दीक्षा लेने को तैयार होगये तथा करणावती नगरी और आसपास के दर्शनार्थी श्राये हुए भावुकों से कई ७२ नर नारी दीक्षा रूपी शिवसुन्दरी के गले में वरमाल डालने को श्रातुर बन गये । जिन मन्दिरों में अष्टान्हिकादि अनेक प्रकार से महोत्सव करवाया जिस समय उन मोक्ष के उम्मेदवारों के साथ वरघोड़ा चढ़ाया गया तो मानों एक इन्द्र की सवारी ही निकली हो कारण सबके दिल में बड़ा भारी उत्साह था इस प्रकार की दीक्षा का ठाठ में ऐसा कौन व्यक्ति हतभाग्य है कि जिनके हृदय में आनन्द की लहर नहीं उठती हो । सूरिजी ने शुभ मुहूर्त एवं स्थिर लग्न में उन सबको विधि विधान के साथ भगवती जैन दीक्षा देकर संसार समुद्र से उनका उद्धार किया शाह पाता का नाम मुनि मोदरत्न रख दिया । शाह पात्ता संसार में बड़ा ही भाग्यशाली एवं उद्धार रत्न था । अब तो आपकी कान्ति एवं कीर्ति खब ही बढ़ गई । सूरिजी महाराज की भी आप पर पूर्ण कृपा थी मुनि प्रभोदरत्न ने स्थविर भगवान् का विनय भक्ति कर वर्तमान साहित्य का अध्ययन कर लिया व्याकरण न्याय तक छन्द काव्य तथा ज्योतिष एवं अष्टाङ्ग महानिमितादि शास्त्रों के भी आप धुरंधर विद्वान एवं मर्मज्ञ वन गये शास्त्रार्थ में तो आप सिद्धहस्त थे कई स्थानों पर क्षणकषादी बोद्धों को आपने इस प्रकार परास्त किये कि आपश्री का नाम सुनकर वे घबरा उठते थे । विशेषता यह थी कि श्राप गुरुकुल बास से एक क्षण भर भी अलग रहना नहीं चाहते थे यही कारण है कि सोपरपट्टन के वाप्यनागगौत्रय शाह दुर्जण के महामहोत्सव पूर्वक आपको उपाध्याय पद से सुशोभित किया। तदान्तर आप सूरिजी के साथ अनेक प्रान्तों में भ्रमन कर जैनधर्म का प्रचार किया। एक समय आचार्य रत्नप्रभसूरि विहार करते हुए उपकेशपुर में पधारे वहाँ के श्रीसंघ ने सूरिजी महाराज का सुन्दर स्वागत किया। सूरिजी महाराज की वृद्धावस्था के कारण व्याख्यान उपाध्याय प्रमोदरत्न दे रहे थे जिनका जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ रहा था सूरिजी के उपदेश से धर्म प्रचार के लिये चतुर्विध श्रीसंघ की सभा हुई थी उस समय सूरिजी विचार कर रहे थे कि अब मी आयुष्य नजदीक है तो मैं मेरे पट्ट पर योग्य मुनि को सूरिपद दे दू ठीक उसी समय देवी सच्चायिका ने पाकर सूरिजी को वन्दन की सूरि जी ने धर्म लाभ देकर देवी से सम्मति ली तो देवी ने उपाध्याय प्रमोदरत्न के लिये अपनी सम्मति दे दी यही विचर सूरिजी के थे वस सुवह श्री संघ को सूचित कर दिया अतः वहां के श्रेष्टि गौत्रीय शाह गोसल ने अपने न्यायोपार्जित नी लक्ष द्रव्य व्यय कर सूरि पद का महोत्सव किया और सूरिजी ने उपाध्याय प्रमोदरत्न को आचार्य पद से विभूषित कर आपका नाम यक्षदेवसूरि रख दिया तथा और भी कई योग्य मुनियों को पदवियां प्रदान की बाद गोशल ने बाहर से आया हुअा संघ को अनेक प्रकार की पेहरावनी देकर विसर्जन किया। आचार्य रत्नप्रभसूरि ने अपने चौबीस वर्ष के शासन में जैन धर्म का खूब ही प्रचार किया अन्त में उपकेशपुर की लुणाद्री पहाड़ी पर २७ दिन का अनशन कर स्वर्ग को ओर प्रस्थान किया। आचार्य यक्षदेवसरिजी महाराज बड़े ही प्रतिभाशाली थे धर्म प्रचार बढ़ाने में विजयी चक्रवति की भांति सर्वत्र अपना धर्मचक्र वरता रहेथे । आपश्री ने उपकेशपुर से विहार कर मरुधर के छोटे बड़े ग्राम नगरों में धर्मोपदेश करते हुए आवंदाचल की यात्रार्थ पधारे वहाँ निर्वृति का स्थान देख कुछ अर्सा स्थिरता कर दी एक दिन आप मध्यन्ह में ध्यान कर रहे थे तो वहाँ की अधिष्टायिका चक्रेश्वरी एवं सच्चायिका दोनों देवियाँ आकर सरिजी को वन्दन किया सरिजी ने 'धर्मलाभ' दिया दोनों देवियों तथाऽस्तु कहकर सूरिजी की सेवा में ठहर गई । सूरिजी ने कहा कहो देवीजी भविष्य का क्या हाल है ? देवियों ने कहा पूज्यवर ! आप ८३६ [ यक्षदेव सूरि और आर्बुदाचल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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