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________________ प्राचार्य सिद्धसुरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १५२८-१५७४ www पहरावणी में दी। इस संघ में रानजी ने लाखों द्रव्य व्यय किया। अपने ग्राम में भी भगवान पार्श्वनाथ का उत्त मंदिर बना कर आचार्यश्री से प्रतिष्ठा करवाई जब से आपकी संतान संघी नाम से प्रसिद्ध हुई। कई भादों ने मंधी जाति को ननवाणा बोहरा से होना भी लिख मारा है पर यह बिलकुल ग़लत बात है उस समय ननवाणा बोहरा का नामकरण भी नहीं हुआ था। ननवागा बोहरा तो करीब विक्रम हवीं शताब्दी में पल्लीवाल ब्राह्मण जोधपुर के पास कोई १० मील के फासले पर नंदवाणा गांव में रहते थे जब वहाँ से अन्यत्र गये तो वे नंदवाणा ग्राम के होने से बोहरगतें करने से ननवाणे बोहरे कहलाये। अतः यह कहना मिथ्या है कि संघी ननवाणे बोहरे थे । वास्तव में संघी पंवार राजपून थे इस जाति का कुछ कुर्सीनामा सोजत के संधियों के पास आज भी विद्यमान है। ___झामड़-जाति-वि० सं०६८८ में प्राचार्य सर्वदेवसूरि अपने ५०० शिष्यों के साथ बिहार करते हुए हथुड़िनगरी के पास पधारे थे, उधर से राव जगमालादि शिकार कर नगर में प्रवेश कर रहे थे जब रावजी के पास शिकार देखी तो आचार्यश्री के दिल में राजा के प्रति बड़ी अनुकम्पा तथा जीव के प्रति करुणा भाव उत्पन्न हुआ। अहो ! अज्ञानी जीव ! कुत्सित संगति से किसी प्रकार कर्मबन्द कर अधोगति के पात्र बन रहे हैं। राजा के साथ ही साथ में सूरिजी ने भी नगरी में प्रवेश किया। राजा घोड़े पर सवार था। सूरिजी को देखकर अपने नेत्र नीचे कर लिये । सूरिजी ने देखा तो सोचने लगे कि जब राजा के नेत्रों में इतनी शरम है तो वह अवश्य समझ सकेंगे। सूरिजोने कहा--नरेश ! कहां पधारे थे। नरेश ने शरम के मारे कुछ भी जवाब नहीं दिया। सूरिजी-नरेश! जरा पर भव को तो याद करो आपको क्षत्रिय वंश में अवतार लेने का यही फल मिला है कि बिचारे निराधार केवल तृण भक्षण कर जीने वाले प्राणियों का रक्षण करना आपका परम कर्त्तव्य था जिसके बदले भक्षण करने को उतारु हुए हो । परन्तु जब भवान्तर में यदि मूक प्राणी मरकर कहीं श्राप जैसे सत्ताधारी होगये और आप इनके जैसे मूक पशु होगये तो क्या आपसे इस प्रकार बदला नहीं लेंगे? नरेश-महात्माजी ! आपका कहना तो सत्य है पर किया क्या जाय यह तो हमारी जाति सम्बन्धी व्यवहार एवं आचार ही हो गया है। सूरिजी-जाति संबंधी व्यवहार तो ऐसा नहीं था पर खराब संगत से कई लोग ऐसी बुरी आचरणाएं कर अपने आपको नरक में डालने का दुःसाहस कर रहे हैं। नरेश-महात्माजी ! हम घुड़ सवार हैं और आप पैरों पर खड़े हैं। अतः इस समय तो हम जाते हैं कल आप राज सभा में पधारें आपका उपदेश हम सुनेंगे।। सूरिजी-नरेश ! आपका विचार अत्युत्तम है पर यह तो नियम करते कि आज से मांस का भक्षण नहीं करूंगा। नरेश-सूरिजी की लिहाज से राजा ने कहा कि आज मैं माँस का भक्षण नहीं करूंगा। बस, राजा अपने स्थान पर गया और सुरिजी भी नगरी में निर्वद्य स्थान में जाकर ठहर गये। राजा ने अपने मकान पर जाकर निर्मल बुद्धि से विचार किया तो आपको ज्ञात हुआ कि महात्माजी का कहना ही यथार्थ है परभव में बदला तो अवश्य देना ही पड़ेगा। जब साथ के लोग जो शिकार लेकर आये थे जिसका माँस तय्यार किया और राजा के लिये थाल में पुरस कर लाये तो राजा ने कहा कि मैंने तो महात्माजी के सामने प्रतिज्ञा की है कि आज मैं माँस नहीं खाऊंगा । अतः मैं आज माँस खाना तो क्या पर सामने भी नहीं देखेंगा इस पर शेष लोगों ने भी विचार किया कि जब राजा मांस नहीं खाते हैं तब हम कैसे खा सकेंगे। पर आज हीं तो कल नही सही राजा कल a suahi fol qùa १५०१ For Private & Personal Use Only Jain Edu www.sainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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