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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ श्रसवाल सं० १५२८- १५७४ यदि मनुष्य बन जायगा और तुम पशु बन जाओगे तो क्या वे तुम्हारे कंठ पर छूरा नहीं चलावेंगे इत्यादि । इस पर वे पातकी लोग पराभव के पाप से डर कर बोले कि महात्माजी ! इसका उपाय भी है कि हम इस पाप से बच सकें ! सूरिजी ने कहा कि आपके लिये यही एक उपाय है कि आप इन सातों दुर्व्यसनों को त्याग कर हिंसा धर्म का पालन करो और जहां ऐसा हलका कार्य होता हो वहाँ पर जाकर प्रेम पूर्वक रोको और जीवों को अभयदान दिलाओ। ठीक है सब जीवों के शुभोदय होता है तब उनको निमित्त कारण भी वैसा ही मिल जाता है सूरिजी ने उन सैकड़ों सरदारों को वासक्षेप एवं मंत्रों से शुद्धि कर जैनी बना लिये वे ही लोग भैरू की नाम स्मृति के कारण रातड़िया कहलाये | और अन्य देव देवियों के बजाय उनके कुत्त देवी देवी की स्थापना करदी इत्यादि । उन आचार्यों के एक तो पुण्य बल जबर्दस्त थे दूसरी उनकी साधना इतनी जबर्दस्त थी कि समय पर देव देवी उनके कार्य में सहायता कर दिया करते थे । जब आचार्य श्री को अपने किये कार्य में आशातीत सफलता मिलती गई तो उनका उत्साह बढ़ जाना स्वभाविक ही था । आचार्य श्री इसी कार्य पर उतारू हो गये कि देवी देवताओं के नाम पर होने वाली घोर अहिंसा बन्द करवा कर वीर क्षत्रियों को जैन धर्म में दीक्षित कर समाज की संख्या बढ़ानी । जब पाखण्डियों को इस बात की खबर लगी कि जैन सेवड़े तो अब ग्रामों एवं जङ्गलों में फिर २ कर लोगों को जैन बना रहे हैं और इस प्रकार इनका प्रचार होता रहेगा तो अपनी तो सब की सब दुकानदारी ही उठ जायगी । इसके मुख्य कारण दो हैं । एक तो म्लेच्छों के आक्रमणों से भी देश में त्राहि त्राहि मच गई थी । दूसरा कारण कई काल-दुष्काल भी ऐसे ही पड़ते थे कि लोगों की आर्थिक स्थिति विकट बन गई थी । जैनों के पास पुष्कल द्रव्य होने से वे लोग धन का लालच देकर लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं तो अपने को भी कहीं पर एक सभा करके अपने धर्म का रक्षण करना चाहिये इत्यादि । इस उद्देश्य से वाममार्गियों के बड़े २ नेता और उनके भक्त लोगों की एक सभा आबू के पास पृथ्वीपुर में जहाँ कि महादेवजी का एक बड़ा ही धाम था जब इस बात की खबर आचार्य नन्नप्रभसूरि को लगी तो वे आप भी पृथ्वीपुर दो कोस सीरोल ग्राम में जहाँ महाजनों के कई सौ घर थे वहाँ धर्म महोत्सव के नाम पर बहुत से ग्रामों में आमन्त्रण देकर भावुक लोगों को एकत्रित किये । बस, दो कोस के फासले पर दोनों धर्मों की सभाओं का आयोजन होगया पर गृहस्थ लोग तो आपस में मिलना भेटना बार्तालाप करना एवं धर्म के विषय में भी थोड़ी थोड़ी चर्चा करने लग गये । पर कई लोगों की यह भी इच्छा हुई कि अलग २ सभाएँ करके लोगों को क्यों लड़ाया जाय । दोनों धर्मों के आगेवान ही एकत्र हो धर्म के विषय में निर्णय क्यों नहीं कर लिया करें कारण गृहस्थ लोग तो हमेशा अज्ञानी होते हैं उनको तो उपदेशक जिस रास्ते ले जाय उस रास्ते ही चले जा सकते हैं। ठीक दोनों ओर के गृहस्थ लोग मिलकर पहले तो आचार्य नन्नप्रभसूरि के पास श्राये और प्रार्थना की कि आप दोनों तरफ के महात्मा एकत्र हो धर्म का निर्णय क्यों नहीं कर लेते हो ? सूरिजी ने कहा हम तो आपके कथन को स्वीकार कर लेते हैं और हम इसके लिये तय्यार भी हैं। बस, बाद में वे लोग चल कर शिवोपासक वाममार्गी एवं ब्राह्मणों के पास आये वहां भी वही अर्ज की पर वे लोग यह नहीं चाहते थे कि हम जैनों के साथ वाद विवाद करें वे तो अपने ही भक्त लोगों को अपने धर्म में स्थिर रहने की कोशिश करते थे पर जब उन लोगों के भक्तों ने एवं वाममार्गियों ने अधिक जोर दिया लाचार होकर उनको भी स्वीकार करना पड़ा। बस, नियत समय पर दोनों ओर के मध्यस्थों के बीच धर्म के विषय में शास्त्रार्थ हुआ जिसमें जैनों का पक्ष तो हमेशा अहिंसा का रहा तब वाममार्गियों एवं ब्राह्माणों का पक्ष तो क्रियाकांड, यज्ञ, होम, देव देवियों को बलि देने का ही रहा था युक्ति प्रयुक्ति भी अपने-अपने मत की पुष्टि के लिये ही कही जाती थी आखिर में हिंसा के सामने हिंसा का पक्ष कहां तक ठहर सकता था । ज्यों ज्यों वाद विवाद में ऊंडे उतरते ये त्यों त्यों हिंसा का पक्ष निर्बल होता गया । आखिर में विजयमाल अहिंसा के पक्ष में ही शोभायमान संखलेचा जाति की उत्पति Jain Education For Private & Personal Use Only १४६५ www.ainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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