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________________ वि० सं० ११०८-११२८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वाजे के पास ५० धनुष का परतर (सम जगह ) एवं १३०० धनुष का अन्तर है। तथा स्वर्ण प्रकोट और रत्न प्रकोट के बीच में पूर्वोक्त १३०० धनुष का अन्तर है। मध्य भाग में २६०० धनुष का मणि पीठ है। दूसरी और १३००-१३०० का अन्तर एवं २००-२६००।२६००।२६०० कुल ८००० धनुष अर्थात् एक योजन हुआ, और चांदी का प्रकोट के बाहर जो १०००० पगोतिये हैं वे एक योजन से अलग समझना । प्रत्येक गढ के रत्नमय चार २ दरवाजे होते हैं। तथा भगवान के सिंहासन के भी १०००० पगोतिये होते हैं। भगवान के सिंहासन के मध्य भाग से पूर्वादि चारों दिशाओं में दो दो कोस का अन्तर है वह चांदी का प्रकोटे के बाहर का प्रदेश तक समझना । वृत ( गोल ) समवसरण की परिधी तीन योजन १३३३ धनुष एक हाथ और आठ अंगुल की होती है । इस प्रकार वृत समवसरण का प्रमाण कहा अब चौरस का प्रमाण कहते हैं। दूसरा चौरंस समवसरण की भीते १००-१०० धनुष की होती है, और चांदी सुवर्ण के अन्तर १५०० धनुष का तथा स्वर्ण व रनों के प्रकोट का अन्तर १००० धनुष का । एवं २५०० धनुष । दूसरी तरफ भी २५०० ध० तथा मध्य पीठिका २६०० ध० और ४०० धनुष की चारों दिवारें । २५०० ! २५००। २६००। ४०० । कुल आठ हजार धनुष अर्थात् एक योजन समझना । शेष प्रकोट दरवाजे, पगोतिये वगैरह सर्वाधिकार वृत समवसरण के माफिक समझना। अब प्रकोट ( गढ़) पर चढ़ने के पगोथियों का वर्णन करते हैं। पहिले गढ़ में जाने को समधरती से चांदी के गढ़ के दरवाजे तक दश हजार पगोथिए हैं, और दरवाजे के पास जाने से ५० धनुष का सम परतर श्राता है। दूसरे प्रकोट पर जाने के लिए ५००० पांच हजार पगोथिये हैं। दरवाजे के पास ५० धनुष का सम परतर आता है और तीसरे गढ़ पर जाने के लिये ५००० पगोथिये हैं । और उस जगह २६०० धनुष का मणिपीठ चौतरा है। उस मणिपीठ से भगवान के सिंहासन तक जाने में दश हजार पगोथिए हैं। समवसरण के प्रत्येक गढ़ के चार २ दरवाजे हैं। और दरवाजे के आगे तीन २ सोवाण प्रति रूपक (पगोथिये) हैं समवसरण के मध्य भाग में जो २६०० धनुष का मणिपीठ पूर्व कहा है उसके ऊपर दो हजार धनुष का लम्बा, चौड़ा और तीर्थक्करों के शरीर प्रमाण ऊंचा एक मणिपीठ नामक चौंतरा होता है कि जिस पर धर्मनायक तीर्थकर भगवान का निहासन रहता है । तथा धरती के तल से उस मणिपीठका के ऊपर का तला ढाई कोस का अर्थात् धरती से सिंहासन ढाई कोस ऊंचा रहता है । कारण ५००० । ५००० । १०००० एवं वीस हजार सोपान हैं प्रत्येक एक २ हाथ के ऊंचे होने से ५००० धनुष का ढाई कोस होता है। अब अशोक वृक्ष का वर्णन करते हैं। वर्तमान तीर्थंकरों के शरीर से बारह गुणा ऊंचा और साधिक योजन का लम्बा पहुला जिस अशोक वृक्ष की सघन शीतल ओर सुगंधित छाया है तथा फल फूल पत्रादि लक्ष्मी से सुशोभित है । पूर्वोक्त अशोक वृक्ष के नीचे बड़ा ही मनोहर रत्नमय एक देवछंदा है, उस पर चारों दिशा में सपाद पीठ चार रत्नमय सिंहासन हुआ करते हैं। उन चारों सिंहासन अर्थात् प्रत्येक सिंहासन पर तीन २ छत्र हुश्रा करते हैं, पूर्व सन्मुख सिंहासन पर त्रेलोक्यनाथ तीर्थकर भगवान् विराजते हैं, शेष दक्षिण, पश्चिम, और उतर दिशा में देवता तीर्थकरों के प्रतिबिम्ब ( जिन प्रतिमा) विराजमान करते हैं । कारण चारों ओर रही हुई परिषदा अपने २ दिल में यही समझती हैं कि भगवान हमारी ओर बिराजमान हैं; अर्थात् किसी को भी निराश होना नहीं पड़ता है। समवसरण स्थित सब लोग यही मानते हैं कि भगवान् चतुर्मुखी अर्थात् पूर्व सन्मुख आप खुद विराजते हैं। शेष तीन दिशाओं में देवता, भगवान के प्रतिबिम्ब अर्थात् जिन प्रतिमा स्थापन करते हैं और वह चतुर्विध संघ को वन्दनीक पूजनीक भी है। ____ समवसरण के प्रत्येक दरवाजे पर आकाश में लहरें खाती हुई सपरवार से प्रवृत्तमान सुन्दर ध्वजा, छत्र, चामर मकरध्वज और अष्टमङ्गलिक यानी स्वस्तिक, श्रीवत्स; नन्दावृत, वर्द्धमान, भद्रासन, कुंभकलश, १४६६ For Private & Personal use Only वायकर भगवान् का समवसरण - M Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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