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________________ वि० सं० १०७४-११०८] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भोजा-नहीं आप सांसारिक कार्यों में भी असत्य का आचरण नहीं करती तो फिर इस पवित्र धर्म के कार्य में तो झूठ बोल ही कैसे सकती हो ? पर मैं भी झूठ नहीं कहता हूँ। मैं भी बराबर भगवान् के कण्ठ में हार रखकर बाहिर आया था। उसके बाद सिवाय आपके और कोई आया भी तो नहीं फिर यह सम्भव श्राविका-फिर हार कहाँ गया, आप जाकर भी तो जरा निगाह कीजिये। भोजा-मेरे जाने की क्या जरुरत है; मैंने सो भगवान को चढ़ा दिया अब उसकी जुम्मेवारी अधिष्टायिक के ऊपर है। श्राविका-श्रापने हार भगवान को अर्पण कर दिया यह तो अच्छा किया और इसमें मेरी भी सन्मति थी पर हार की निगाह तो अवश्य ही करनी चाहिये। यदि आपने उसकी सारी जुम्भेवारी अधिष्ठायिक के ऊपर रक्खी है और उसके अनुसार यदि अधिष्ठायिक उस ओर लक्ष्य देता तो हार कैसे चला जाता ? हार का सुष्ठ-प्रकारेण पता लगने पर ही मुझे सन्तोष होगा। इस प्रकार यकायक हार के लापता हो जाने के विषय में परस्पर दम्पत्ति के हमेशा वार्तालाप हुआ करता था। इधर जिन शासन शृंगार, परमोपकारो, महा-प्रभावक आचार्य सिद्धसूरीश्वरजी महाराज विहार करके पाटण की ओर पदार्पण कर रहे थे। इसकी खबर वहाँ के श्री संघ को हुई तो पाटण वासी जन-समाज के हर्ष का पारावार नहीं रहा। श्रीसंघ ने सूरीश्वरजी का बहुत ही ठाट पूर्वक नगर-प्रवेश महोत्सव किया। आचार्यश्री ने भी समयानुकूल माङ्गलिक धर्म देशना दी जिसका जन-समाज पर पर्यात प्रभाव पड़ा। इस प्रकार आचार्यश्री का व्याख्यान प्रतिदिन होता था। प्रसङोपात एक दिन सरिजो ने मनध्य ज सामग्री की दुर्लभता और संसार की प्रसारता पर अत्यन्त प्रभावोत्पादक व्याख्यान दिया। उक्त वैराग्य पूर्ण व्याख्यान को श्रवण कर कई मुमुक्षु संसार से विरक्त हो गये उनमें शाह भोजा भी एक था। व्याख्यान श्रवणानंतर भोजा जब अपने निर्दिष्ट स्थान पर आया तो आपकी धर्सरशी ने कहा-अहा! आज सरिजी ने कैसा रोचक एवं उदयग्राही व्याख्यान दिया है। भोजा-तो क्या तुमको भी उस विषय का कुछ रङ्ग लगा है ? मोहिनी-रङ्ग तो लगता है पर यकायक संसार छूटता कहाँ है ? भोजा-तो फिर तुम उस बन्दर वाली ही बात करते हो । मोहिनी-सो कैसे। भोजा--एक छोटे मुँह का घड़ा था। उसमें चने भरे हुए थे। एक बन्दर ने अपने दोनों रिक्त हाथ चने के प्रलोभन से घड़े में डाले और दोनों हाथों में चने भर लिये पर अब भुट्टी भरी झेने से हाथ घड़े से बाहिर नहीं निकल सके । अतः वह निरुपाय हो चिल्लाने लगा कि-चने ने मुझे पकड़ लिया है, पर बतलाइये चने ने बन्दर को पकड़ रक्खा है या बन्दर ने चने को पकड़ रक्खा है ? इस पर मोहिनी ने कहा-बने ने बन्दर को नहीं पकड़ा है पर बन्दर ने चने को पकड़ा है। बस यही बात आप अपने लिये भी समझ लीजिये । संसार ने आपको नहीं पकड़ा है पर आपने संसार को मजबूती से पकड़ रक्खा है। यदि आप चाहें तो आज भी संसार का त्याग कर आत्म कल्याण कर सकती हो। पतिदेव के उक्त वचनों को श्रवण कर मोहिनी ने कहा तो--क्या आप मुझे संसार छोड़ने का उपदेश दे रहे है ? भोजा-हां, मैं स्वयं भी संसार को छोड़ना चाहता हूं। मोहिनी-तो फिर किस की ओर से विलम्ब है ? यदि आप संसार को छोड़ दें तो मैं आपके साथ १४३८ Jain Education International For Private & Personal use Only हार के विषय में दम्पति का संवाद.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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