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________________ वि० सं० १०३३-१०७४ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास की बाङ्गोपाङ्ग साधना की। त्रिपुरादेवी भो उक्त साधा से प्रसन्न हो प्रत्यक्ष कर वाचकजी से कहने लगीप्रभो ! आप की आराध भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न हुई हूँ। अतः आपको जो कुछ इष्ट हो मांगो-मैं प्रसन्नता पूर्वक आपकी मनोकामना को पूर्ण करने के लिये तैय्यार हूं। इस पर वाचकजी ने वचन सिद्धि रूप सफल वर मांगा। सष्टवादी, कुशाग्रमाते वाचकजी को 'तथास्तु' कह कर देवी अन्तरध्यान होगई । इधर वाचकजी का भी वाक्य सिद्ध हो गया। वे जैसा अपने मुख से बोलते ठीक वैसा ही होने लगा। ___ एक दिन उपाध्यायजी कहीं बाहिर जा रहे थे तो मार्ग में उन्हें कोई उपासक बैल की पीठ पर बोझा लादे विदेश से आता हुआ मिला । श्रीवाचकजी से भेंट कर उस उपासक ने उनको बंदना की तब वाचकजी ने उससे पूंछा-तुम्हारे पास क्या माल है ? यह सुन उपासक ने, शायद उपाध्यायजी को कुछ देना पड़े इस भय से काली मिर्च को भी उड़द बताया। वाकचजी के "ऐसा ही हो' कहने पर सचमुच वे मिरचे भी उड़द हो गई । अब तो वह घबराता हुआ इसका कारण खोजने लगा। जब उसे पता चला कि ये वाक्य सिद्ध हैं, तो उनकी वचन महिमा को जानकर बड़े ही विस्मय के साथ अपने असत्य भाषण के लिये वह पश्चात्ताप करने लगा। वह वाचकजी के सम्मुख अपने अपराध की क्षमा याचना करता हुआ गिड़गिड़ाने लगा। वाचकजी ने भी सहज दयाभाव से प्रेरित हो कहा-“यदि तेरे उड़द वास्तव में काली मिर्च थे तो अब भी वही हो जॉय” उनके ऐसा कहने पर तत्क्षण वे उड़द काली मिर्च बन गये। एक ऐसा ही उदाहरण और बना । तदनुसार एक ब्राह्मण भिता में मिले हुए चाँवल धान्य (चौलों ) को सिर पर उठाये जाते हुए वाचकजी को मिला । वाचकजी ने उससे सहन ही पूछा-हे ब्राह्मण ! तुम्हारी गांठ में क्या चाँवल हैं ? उसने कहा-नहीं, ये तो चौले हैं। मुनि ने कहा- चौलें नहीं चाँवल हैं। ब्राह्मण ने अपनी गांठ खोल कर देखा तो उसे चांवल ही नजर आये। __ इस तरह वाचक मुनि पद्मप्रभ, त्रिपुरादेवी के वरदान से वाक्य सिद्ध गुण-सम्पन्न हो गये तब उनके गुरु ने उन्हें वाचनाचार्य नाम वाले योन्य पट्टपर उन्हें स्थापित कर दिया । वाचनाचार्य पट्ट पर विभूषित होने के पश्चात् दोनों गुरु शिष्यों ने क्रम : गुर्जर प्रान्त की ओर विहार कर दिया। उस समय किसी भीम देव की प्रधान रानी अहंकार में मस्त हो किसी दार्शनिक साधु सन्यासी या विद्वान के सामने बैठ जाने पर भी अपना आसन नहीं छोड़ती थी। उसके इस जवन्य अहंकार को मिटाने के लिये एक दिन वाचनाचार्य मुनि पद्मप्रभ उसके घर गये । रानी ने मुनिजी का न सत्कार किया और न वह आसन छोड़ करके ही मुनिजी के सन्मानार्थ दो कदम आगे आई। . वाचनाचार्यजी-बहिन ! आपको यह गौरव ( अभिमान ) किस निमित्त है, ? क्या व्याकरण, काव्य, तर्क, छंद आदि की परीक्षा करना चाहतो हो ? रानी-इन तत्वों से हमें क्या प्रयोजन है ? मैं तो अध्यात्म योग विद्या के अभिज्ञ साधु समझती हूँ | इसके सिवाय केवल मस्तक मुण्डाने से क्या होता है ? जब अध्यात्म योग विद्या में निपुर्णता ही किसी साधु में दृष्टिगोचर नहीं होती तब किसका नमन व किसका पूजन किया जाय ? यह सुनकर जरा मुसकान के साथ पद्मप्रभ ने उत्तर दिया-श्रीमतीजी ! क्या आप तर्क, व्याकरण, साहित्य, निमित्त (शकुन-ज्योतिष ) गणित आदि के ज्ञान को प्रत्यक्ष देखती हो ? . रानी-इन निःसार वस्तुओं में क्या ? मैं तो अध्यात्म विद्या में स्थित है और समग्र ब्रह्माण्ड को स्वयं रूप में जानती हूँ। मुझसे पृथक् मैं किसी को नहीं देखती जिसको कि मैं नमःकार करूं। वाचनाचार्य-रानीजो ! मैं अष्टांग योग और कुम्भक पूरक तथा रेचक इन विविध प्राणायामों को जानता हूँ। इस पर रानी ने आश्चर्यान्वित कहा-पूरक तथा रेचक प्राणायाम के कुछ चमत्कार बताओ। मुनि ने बनियों से रूई मंगवा कर कहा-जब मैं पूरक प्राणायाम को श्वास वायु द्वारा पूर्ण करके निश्चल हो १४२८ वाचनाचार्य पद्मप्रभ वचन सिद्ध For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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