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________________ प्राचार्य देवगुप्तरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १३५२-१४११ में वह अपने आप ही विस्मृत हो जाता था। परिणाम स्वरूप मुनि विनयरुचि ने बारह मास में प्रतिक्रमणादि आवश्यक क्रियाएं भी बड़ी कठिनाइयों से सीखीं फिर अधिक की तो आशा ही क्या की जासकती है ? इतना सब प्रकृति का प्राकृतिक कोप होते हुए भी मुनि विनयरुचि ज्ञान ध्यान से हताश नहीं हुआ। उन्होंने तो अहर्निश नियमानुसार कटाकट क्रिया एव कण्ठ शोषन प्रारम्भ ही रक्खा । तीब्र स्वर से पाठोच्चारण कर घोखने के नित्य क्रम से समीप में शयन करने वाले मुनियों को निद्रा भी नहीं आने लगी। अतः एक साधु ने रोज की कटाकटी से उद्विग्न हो अधीरता पूर्वक व्यङ्ग किया-मुनिजी! आप रात दिन इस प्रकार का कण्ठ शोषन कर ज्ञानाध्ययन करते हो तो क्या किसी राजा को प्रतिबोध देकर जिनशासन का उद्योत करोगे ? मुनि विनयरुचि ने उक्त मुनिश्री के उक्त व्यङ्ग का शान्ति एवं नम्रता पूर्वक प्रत्युत्तर दिया-पूज्य-मुनिजी ! मैं तो एक साधारण साधु हूँ। मेरी तो शक्ति ही क्या ? पर आपश्री जैसे मुनि पुङ्गवों के शुभाशीर्वाद से यह कार्य भी कोई सर्वथा असम्भव नहीं है । मुनि विनयरुचि के हृदय में ज्ञान पढ़ने की तीब्र उत्कण्ठा तो पहिले से ही थी पर अब तो मुनिश्री के उक्त कटाक्ष पूर्ण व्यङ्ग से राजा को प्रतिबोध देने की भावना ने भी जन्म ले लिया। ___ एक दिन रात्रि के समय मुनि विनयरुचि प्राचार्य देव की सेवा में बैठे हुए ज्ञान ध्यान कर रहे थे कि ज्ञान नचढ़ने के कारण अचानक सूरीश्वरजी से पूछा भगवन् ! मैंने पूर्वजन्म में ऐसा कौनसा कठोर कर्मोपार्जन किया है कि इतना परिश्रम करने पर भी मैं यथावत् मनोऽनुकूल ज्ञानोपार्जन नहीं कर सकता हूँ। गुरुदेव ! कृपया मुझे ऐसा कोई अमोघ उपाय बताइये कि जिसके द्वारा मैं मेरा मनोरथ सिद्ध कर सकूँ। सूरिजी ने एक सरस्वती देवी का मन्त्र और उसकी साधना विधि बतलाते हुए कहा-तुम काश्मीर जाकर सरस्वत्याराधन करो, तुम्हारे मनोरथ सफल हो जावेंगे। सूरिजी के वचन को तथास्तु कह कर मुनि विनयरुचि ने बड़ी प्रसन्नता के साथ स्वीकार कर लिया। काश्मीर जाने की उत्कट अभिलाषा ने उनके हृदय में अडिग आसन जमा दिया । क्रमशः आचार्यश्री की आज्ञा प्राप्त कर मुनि विनयरुचि ने थोड़े मुनियों को साथ में ले काश्मीर की ओर विहार कर दिया । काश्मीर पहुँच कर मुनि विनयरुचि ने तो चउविहार उपवास की तपस्या पूर्वक सरस्वती के मन्दिर में ध्यान लगा दिया और साथ में आये हुए अवशिष्ट मुनिगण नगर के बाहिर अवस्थित हो मुनित्व क्रिया करने में संलग्न हो गये । चउविडार २१ उपवास की अन्तिम रात्रि में देवी ने अदृश्य होकर कहा-मुनिजी ! मैं आपकी श्रद्धा पूर्ण भक्ति से बहुत प्रसन्न हुई हूँ अब जो कुछ इच्छा हो लीजिये मैं देने को तैय्यार हूँ। मुनि ने कहा-माताजी ! मुझे और क्या चाहिये ? केवल एक विद्या के लिये वरदान चाहिये जिससे मेरा पढ़ा हुआ ज्ञान स्खलित न हो सके । देवी, मुनिजी के सर्वथा निस्पृह वचनों को सुन कर बहुत ही प्रसन्न हुई। मुनिश्री की इच्छानुकूल उन्हें वरदान दिया कि आप जो चाहोगे वह ज्ञान सर्वथा अस्खलित रहेगा और आपको सर्वत्र हो विजय श्री प्राप्त होगी। देवी के वचनों को 'तथास्तु' शब्द से सहर्ष स्वीकार कर मुनि विनयरुचि जहाँ अन्य मुनि ठहरे हुए थे, वहाँ आये और २१ दिन के चउविहार उपवास का पारणा किया । अब तो जिस मुनि को एक पद याद करना मुश्किल था आज उसी को सब के सब शास्त्र एक बार के पठन मात्र से ही कण्ठस्थ हो जाने लगा। इधर श्रीनगर निवासियों को मालूम हुआ कि यहां जैन श्रमण आये हैं तो जैनियों के उत्कर्ष के असहिष्णु कई गीर्वाण भाषा विशारद विप्रगण मुनिश्री को पराजित या लजित करने के बहाने मुनि विनयरुचि के स्थान पर आकर उनसे संस्कृत भाषा में धर्म सम्बन्धी कई तरह के प्रश्नोत्तर करने लगे। मुनिश्री ने भी सरस्वती देवी की अतुल कृपा से उन्हें ऐसे समुचित प्रत्युत्तर दिये कि वे लोग आश्चर्यान्वित हो दांतों तले अंगुली दबाने लगे। उन्होंने मुनिश्री की विद्वत्ता से प्रभावित हो उपदेश श्रवण की इच्छा प्रगट की और नित्य अपना इसी प्रकार का क्रम जारी रखने के लिये विनम्र प्रार्थना की। मुनिश्री ने भी कई दिनों तक वहां स्थिरता कर षदर्शनों का प्रतिपादन एवं जैनदर्शन का महात्म्य बताया, जिसको श्रवण कर बहुत से लोग जैनधर्म की mowinwwwwwwwwwwmanwwwwwwwwwww मुनि विनयरुची को ज्ञान नहीं चढ़ने का कारण १३६५ www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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