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________________ वि० सं० १५२-१०११] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जाने वालों का तांता बंध गया । श्रावक लोग अपने २ नगर को पावन करने के लिये आचार्यश्री से आग्रह पूर्ण प्रार्थना करने लगे । सूरिजी ने भी अजयगढ़ के चातुर्मासानन्तर १२ पुरुष, महिलाओं को दीक्षित कर मारवाड़ प्रदेश की ओर पदार्पण कर दिया । क्रमशः पद्मावती, शाकम्भरी, डिडूपुर, हंसावली, पद्मावती मेदिनीपुर, मुग्धपुर, होते हुए नागपुर पधारे । श्रीसंघ के आग्रह से वह चातुर्मास भी नागपुर में ही आचार्य श्री ने कर दिया। मुग्धपुर में एक प्रभूत धन का स्वामी, विशाल कुटुम्ब वाला सदाशंकर नामका ब्राह्मण रहता था। उसके हृदय की यह आन्तरिक अभिलाषा थी कि मैं किसी भी मंत्र तंत्रादि के प्रयोग से किसी नगर के राजा प्रजा को अपनी ओर आकर्षित कर अपना परम भक्त बनालू जिससे मेरा जीवन निर्वाह शान्ति एवं सम्मान पूर्वक किया जासके । उक्त भावना से प्रेरित हो किसी विशेष आशा से एक समय बह ब्राह्मण किन्हीं चैत्यवासियों के उपाश्रय में गया और चैत्यवासी आचार्यों की विनय, भक्ति, वैयावच्च कर प्रार्थना करने लगा-पूज्येश्वर ! कृपा कर मुझे कोई ऐसे मंत्र की साधना करवावें कि मेरा मनोरथ शीघ्र सफल हो जाय। पहले तो आचार्यश्री ने कई बहाने बना कर उदासीनता प्रगट की पर जब भूदेव ने अत्याग्रह किया तो आचार्यश्री ने उसके ऊपर दया लाकर एक नक्षत्र की साधना बतलाही । छः मास की साधना विधि बतलाने पर ब्राह्मण ने भी आचार्यश्री के कथनानुकूल मंत्र साधन प्रारम्भ कर दिया। जब मन्त्र साधन के केवल तीन दिन ही अविशिष्ट रहे तब वह अन्तिम दिनों में मंत्र की साधना के लिये शमशान में जाकर ध्यान करने लगा। अन्तिम दिन में रात्रि को देवोपसर्ग हा जिससे वह चलायमान हो पागलों की तरह नक्षत्र नक्षेत्र करने लग गया। सदाशंकर पागल होजाने के कारण उसके कौटम्बिक पारिवारिक बड़े ही दुःखी होगये । उन लोगों ने सदाशंकर के पागलपन नाशक बहुत ही उपाय किये पर दैविक कोप के आगे वे सबके सब उपचार निष्फल होगये। इस प्रकार कई अर्सा व्यतीत होगया । भूदेव के उठने, बैठने, खाने, पीने, हलने, चलने में सिवाय नक्षत्र २ चिल्लाने के कोई दूसरी बात नहीं थी । चातुर्मास के पश्चात् आचार्यश्री कक्कसूरिजी म. मुग्धपुर पधारे । ब्राह्मण लोग आचार्यश्री के प्रभाव व तपस्तेज से पहिले से ही प्रभावित थे अतः आचार्य पदार्पण करते ही वे सदाशंकर को सूरिजी के पास खाकर प्रार्थना करने लगे-पूज्य महात्मन् ! हम लोग बड़े ही दुःखी हैं। आपतो परोपकारी महात्मा हैं अतः हमारे इस संकट को शीघ्र हो मिटाने की कृपा कोजिये ! दयानिधान! हम आपके उपकार को कभी नहीं भूलेंगे। सूरिजी-~-यदि यह ठीक हो जाय तो आप लोग इसके बदले में क्या करेंगे? ब्राह्मणवर्ग-आपको मनोऽभिलषित अभिलाषा की पूर्ति करेंगे। श्राप जो कहेंगे उसी आदेश के अनुसार बढ़ेंगे। सूरिजी-हमें तो किसी वस्तु या पोद्गलिक पदार्थ की आवश्यकता नहीं है ! हाँ; आप लोगों को अपने आत्म कल्याण के लिये जैनधर्म अवश्य स्वीकृत करना होगा। इसमें हमारा तो किञ्चित भी स्वार्थ नहीं है । आचार्यश्री के इन वचनों से वे लोग विचार विमुग्ध बन गये। किसी के भी मुंह से हां या ना का कोई सन्तोषप्रद प्रत्युत्तर नहीं प्राप्त हुआ तब, आचार्यश्री ने पुनः कहना प्रारम्भ किया--ब्राह्मणों ! जैनधर्म किसी व्यक्ति या जाति विशेष का धर्म नहीं। इसको पालन करने में सकल जन समुदाय जातीय बन्धनों से विमत स्वतंत्र है। आप ब्राह्मण लोगों के लिये तो जैनधर्म ही आदि धर्म है। सर्व प्रथम भगवान् ऋषभदेव की शिक्षा से चार वेद बनाकर भरतेश्वर चक्रवर्ती ने आपके पूर्वजों को दिये। आपके पूर्वजों ने वेदों के द्वारा विश्व में सद्धर्म का प्रचार किया पर स्वार्थ लोलुपी ब्राह्मण कालान्तर में धर्मभ्रष्ट होघेदों के असली तत्व को ही परिवर्तित कर दिया । अतः भगवान महावीर ने पुनः ब्राह्मणों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित किया जिससे इन्द्रभूत्यादि ४४०६ ब्राह्मणों ने जैन दीक्षा को स्वीकार स्वात्मा के साथ अनेक भव्यों का उद्धार किया । क्रमशः शय्यंभवभट्ट, १३७४ मुग्धपुर के ब्राह्मण सदाशंकर Jain Education international For Private & Personal Use Only w.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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