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________________ वि० सं० ३७०-४०० वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास तृणवत् ही समझता था। एक समय सूरिजी का एक लघु शिष्य कई साधुओं के साथ थंडिले भूमि को गया था। भाग्यवसात् तापस भी वहाँ श्रागया । अतः दोनों की आपस में भेंट हुई तथा वार्तालाप भी हुआ दोनों के चेहरे पर भाग्य रेखा चमक रही थी। "तापस ने पूछा कि मुनिजी ! आपके धर्म का मुख्य सिद्धान्त क्या है ? "मुनि ने कहा हमारे धर्म का मुख्य सिद्धान्त स्याद्वाद है । इसका दूसरा नाम अनेकान्तवाद भी है । तापस- स्याद्वाद आप किसको कहते हैं ? मुनि-वस्तु में अनंतधर्म है जिसमें से एकधर्म की अपेक्षा लेकर कथन करना उसको स्याद्वाद कहते हैं। तापस- इस विषय का कोई उदाहरण बतला कर समझाइये । मुनि-एक महिला है उसमें अनेक गुण हैं जैसे वह माता है बहिन है पुत्री है औरत है इत्यादि अनेक स्वभाव वाली हैं। पर जब उसको माता कहेंगे तो पुत्र की अपेक्षा ग्रहण करनी पड़ेगी, कि पुत्र की अपेक्षा माता है पर माता कहने से शेष बहिन पुत्री और औरत के गुण हैं उनका नाश न होगा क्योंकि भाई की अपेक्षा उसे बहिन पिता की अपेक्षा पुत्री, और पति की अपेक्षा औरत भी कह सकते हैं इसको स्याद्वाद, अनेकान्त एवं अपेक्षावाद कहा जाता है इसी प्रकार जिस समय जिस गुण की अपेक्षा लेकर वर्णन करेंगे वह सत्य है जैसे आत्मा ज्ञानी है उस समय आत्मा में दर्शनादि दूसरे गुण भी विद्यमान हैं । तापस-आपके मत में आत्मा का क्या स्वरूप और आत्मा को कैसे माना है। मुनि-आत्मा नित्य अक्षय सच्चिदानंद असंख्याता प्रदेशी शाश्वता नित्य द्रव्य माना है । तपसी-यदि आत्मा अक्षय एवं नित्य शाश्वताद्रव्य है तो फिर जीव मरता जन्मता क्यों है ? मुनि-श्रात्मा न तो कभी जन्मता है और न कभी मरता ही है। तापस-आपके इस कथन पर कैसे विश्वास किया जाय। कारण, प्रत्यक्ष में हम देखते हैं कि जीव मरता है और जन्मता भी है। और व्यवहार में सब लोग भी यही कहते है। मुनि महात्मा! श्राप हम और जनता जिस जीव को मरना जन्मना देख रहे एवं कहते है वह जीव नहीं पर स्थुल शरीर की अपेक्षा से ही कहा जाता है । जीव नाम कर्म के उदय से शरीर प्राप्त करता है आयुष्य के साथ इसका सम्बन्ध रहता है उस की स्थिति पूर्ण होने से जीव पूर्व शरीर को छोड़ दूसरे शरीर को धारन कर लेता है जैसे एक मुशाफिर एक कमरा दो मास के लिये किराया पर लिया है जब दो माम की मुद्रित खत्म होजाति है तब उस कमरा को छोड दूसरा कमरा किराये लेना पडता है । यही संसारी जीयों काहाल हैं। तापस-कहा जाता हैं कि पांच तत्वों एवं पाँच भूतों से शरीर बनता है मुनि-हाँ इसमें भी अपेक्षा रही हुइ है पर आपके कहने पर भी आप ध्यान लगाकर सोचिये कि जब पांच तत्वों से शरीर बना है तो जब तत्वों का नाश होने से शरीर का नाश हो जाता हैं फिर भी जीव तो अनादि शाश्वता ही रहाँ पांच तत्वों वालों ने जो कल्पना की है वह इस प्रकार है कि शरीर में अस्थि-हाड वगैरे कठिन द्रव्य है उसके लिये पृथ्वी तत्व, खूब वगैरह द्रव्य ढ़ीला पदार्थ है उनकी पानी तत्व, जेठ रानि को तेजस तत्व, शाश्वोशाख की वायुतत्व और इन तत्वा का भाजन को आकाशतत्व मान लिया है और इनको ही स्थुल शरीर कहा जाता है जिसके नाश होने पर भी जीव अनाशमान शाश्वता रहता है तापस-आप स्थूल शरीर कहते हो तो क्या दूसरा कोई सूक्ष्म शरीर भी होता है ! [ तापस और आत्मवाद Jain Educ ७९८ e rnational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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