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________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० १९७८-१२३७ धर्म स्थित और वृषभ के साथ चन्द्रमा का योग होने पर वृहस्पति लग्न में सूर्य और भौम के शत्रु स्थित रहते हुए अर्थात् सर्वाग शुद्ध शुभ मुहूर्त में श्रीमान् श्रेष्टि उदय के महामहोत्सव पूर्वक गुरुमहाराज ने चंगदेव को दीक्षा दी और उसका सोमचन्द्र नाम रक्खा | क्रमशः यह बात चाच श्रेष्ठी को ज्ञात हुई तो वह तत्काल कुपित होकर स्तम्भन तीर्थ श्राया और कर्कश वचन बोलने लगा तब उदय श्रावक ने उनको आचार्यश्री के पास में लेजाकर मधुर वचनों से शान्त किया । इधर मुनि सोमचंद्र ने अपनी स्वाभाविक प्रतिभा सम्पन्न शक्ति द्वारा शाघ्र ही तर्क शास्त्र, व्याकरण और साहित्य विद्या का अध्ययन कर लिया। इतने में एक दिन एक पद से लक्षपद की अपेक्षा भी अधिक पूर्व का चिन्तवन करते हुए उन्हें खेद हुआ कि - अहो ! मुझ अल्प बुद्धि को धिक्कार है । मुझे अवश्य ही काश्मीर वासो देवी का आराधन करना चाहिये । उक्त विचार से प्रेरित हो उन्होंने गुरु महाराज से प्रार्थना की तो देवी का सन्मुख आना जानकर के उन्होंने (गुरु ने ) यह प्रार्थना मान्य की । पश्चात् गीतार्थ साधुत्रों के साथ मुनि सोमचंद्र ने ताम्रलिप्ति से काश्मीर की ओर प्रयाण किया । मार्ग में आये हुए नेमिनाथ के नाम से प्रसिद्ध ऐसे रैवतावतार चैत्य में ठहरकर गीतार्थों की अनुमति से सोमचंद्र मुनि ने एकाग्र ध्यान किया । नासिका के अप्रभाग पर दृष्टि स्थापन करके ध्यान करते हुए मुनि सोमचन्द्र को आधीरात में सरस्वती देवी साक्षात् प्रगट होकर के कहा - 'हे निर्मल मति वत्स ! तू देशान्तर में मत जा । तेरी भक्ति से सन्तुष्ट हुई मैं यहां पर ही तेरी इप्सितेच्छा पूर्ति कर दूंगी।' इतना कह कर देवी भारती अदृश्य होगई । इस प्रकार सरस्वती के प्रसाद से मुनि सोमचंद्र सिद्ध सारस्वत व विद्वानों में अग्रसर हुए । श्रीदेवचन्द्र सूरि ने अपने अन्तिम समय में मुनिसोमचन्द्र को सूरिपदयोग्य जानकर के श्रीसंघ के समक्ष कुशल नैमित्तिकों से निकाले हुए शुभ मुहूर्त में सूरिपद अर्पण कर दिया । तभी से मुनिसोमचन्द्र हेमचंद्र सूरि नाम से विख्यात हुए । सूरि पदारूढ़ानंतर श्रापकी मातुश्री ने भी चारित्र यानि दीक्षा अङ्गीकार की और उन्हें श्रीसंघ की अनुमति से प्रवर्तनी पद व सिंहासन बैठने की आज्ञा प्रदान की । एकदा आचार्य हेमचन्द्रसूरि विहार करके हिलपुर नगर में पधारे। किसी दिन रबाड़ी से निकला हुआ सिद्धराज राजा बाजार में एक वाजू खड़े हुए सूरिजी के पास अंकुश से हाथी को लेजाकर कहने लगाआपको कुछ कहना है ? तब आचार्य बोले - हे सिद्धराज ! शंका बिना गजराज को आगे चलावो । दिग्गज भले ही त्रास को प्राप्त हो पर इससे क्या ? कारण पृथ्वी को तो तुमने ही धारण कर रक्खा है यह सुनकर राजा बहुत ही सन्तुष्ट हुआ और दोपहर को हमेशा राजसभा में आने की प्रार्थना की । आचार्यश्री के प्रथम दर्शन से ही उसको आनंद हुआ व दिग्यात्रा में उसकी जय हुई | एक दिन मालव प्रान्त को जीत करके राजा सिद्धराज आया तो सब दार्शनिकों ने उसको आशीर्वाद दिया । इस पर श्राचार्य हेमचन्द्रसूरि एक श्रवणीय काव्य से आशीष देते हुए बोले- हे कामधेनु ! तू तेरे गोमय-रस से भूमि को लीप दे हे रत्नाकर ! तू मोतियों से स्वस्तिक पूरदे, हे चंद्रमा ! तू पूर्ण कुम्भ बनजा; हे दिग्गजों ! तुम अपनी सूड़ को सीधी करके कल्पवृक्ष के पत्तों से तोरण बनाओ कारण, सिद्धराज पृथ्वी को जीत करके श्राता है। इससे तो राजा की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा । वह रह रह कर बारम्बार राजसभा में धर्मोपदेशार्थ पधारने के लिए प्रार्थना करने लगा । एक दिन अवन्तिका के भण्डार की पुस्तकों को देखते हुए राजा की दृष्टि में एक व्याकरण आया मुनि सोमचन्द्र पर सरस्वती की कृपा Jain Education International For Private & Personal Use Only १२६१ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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