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________________ आचार्य ककसूरि का जीवन ] १०८ अर्थ किये पर राजा धर्म ने इन संकेत सूचक बातों की ओर लक्ष्य ही नहीं दिया । राजा आम उस रात्रि में एक वारगंगा के वहां रहा और एक बढ़िया कांकरण उसको देकर उसके यहां से निकला और एक बहुमूल्य कांकण राज द्वार पर रख कर एक उद्यान में जाकर गुप्त पने रहा । दूसरे दिन पुनः ठीक समय पर बप्पभट्टिसूर राज सभा में श्राये और कान्यकुब्ज जाने के लिये राजा से अनुमति मांगने लगे । इस पर राजा ने कहा- यह क्यों ? सूरीश्वरजी ने कहा- राजा श्राम कल यहां सभा आया था। जो थेगीदार था वह वास्तव में राजा श्राम ही था । दूत ने आप से कहा भी था कि तू बर पत्र तथा एक गाथा के अर्थ में मेरा भी यही सङ्केत था । इतने में वाराङ्गण ने कांकरण को राजा के सम्मुख रखते हुए कहा - रात्रि में मेरे मकान पर एक अनजान पुरुष आया था उसने यह कांकण मुझे दिया है। उधर से द्वारपाल श्राया और उसने भी कांकण रखते हुए कहा--प्रभो । न जाने किसने यह कांकण द्वार पर रक्खा है । बस, दोनों कांकणों को देखकर उनका सूक्ष्यता पूर्वक निरीक्षण किया तो छोटे २ अक्षरों में राजा आम का नाम पाया गया । इस पर राजा धर्म बहुत प्रायश्चित किया कि - श्रहो । बैरी राजा मेरे पास आया पर उसका मैंने सत्कार तक नहीं किया दीर्घ काल से चले आये बैर के समाधान का समय हाथ लगा था किन्तु वह भी मेरी अज्ञानता के कारण ने [ ओसवाल सं० १९७८ से १२३७ इत्यारोप बलात् पहकुज्जरे धरणीधरः । जितक्रोधाद्यभिज्ञानघृतच्छत्र चतुष्टयम् ॥ ८७ जातेसूरिपदेऽस्माकं करूप्यं सिहासनासनम् । इति तस्य वचः श्रुत्वा खिन्नोऽन्यासन्य वीविशन् ॥ ९० प्ररूढ़ प्रौढ़ सौहार्दवसुधाधीश संस्तुतः । पुरं पौर पुरस्त्रीभिराकुलादक ततः ॥ १२२ + + + पूर्ण वर्ण सुवर्णाष्टादश भार प्रमाण भूः । श्रीमतो वद्धमानस्य प्रभो र प्रतिमा न भूः ॥ १३७ तथा गोपगिरौ लेप्पमय बिम्बयुतंनृपः । श्री वीर मन्दिर तत्र त्रयोविंशति हस्तकम् ॥ १४० सपादलक्षसौवर्णक निष्पन्न मण्डपम् । व्यधापय निर्जराज्यपमिव सन्मत्त वारणम् ॥ ६४१ इत्युक्त्वाऽतो निरीयागात् संगत्यामनृपेण च । करभी भिर भीपुभिः सुराभिर्यशसा गुरुः ॥ २६५ + + + अमूकार्यं निर्वाह ज्ञानहेतु' ततस्तदा । स्नेहादेव निशिषित् तांपु वेषां तदश्रिये ॥ २८८ सा निलीना क्वचित् भव्यगणे स्वस्थानगे ततः रहः शुश्रूषितु ं सूरि प्रारंभे धैर्यभित्तये ॥ २८९ स्त्रीकर स्पर्शतीज्ञात्वाऽत्रोपसर्गमुपस्थितम् । विमर्श नृपाज्ञानतमसचेष्टितं ध्रुवम् ॥ २९० + + + नाथ ! पाथः पति बाहुदण्डाभ्यां स तरस्थलम् । भिनत्ति च महाशैलं शिरसा तरसा रसात् ॥ ३३३ पदे ( ? ) वद्दिन्मास्कन्देत् सुप्तसिंहञ्च बाधयेत् श्वेतभिक्षुतव गुरुंय एवं हि विकारयेत् ॥ ३२४ असौमही धराधारा देशः पुरमिंद मम । भाग्यशोभाग्यमृद् यत्र बध्यमट्टि प्रभुस्थितिः ॥ ३३७ प्राग्दत्त गुरुभिमंन्त्र परावर्त्तयतः सतः । मध्यरात्रे गिशंदेवी स्वर्गङ्गविगि मध्यतः ॥ ४१२ सामतीताशरूपा च प्रादुरासीद् रहस्तदा । अहो मंत्रस्य माहात्म्यं यद्दे व्यापि विचेतना ॥ ४२० + + + पाश्रयस्थितं भव्य कदम्बक निषेवितम् । राजानमिव सच्छन्न चामरप्रक्रियान्वितम् ॥ ४८६ प्र० च० सिंहासन स्थितं श्रीमन्नन्नसूरिं समैक्षत । उत्तान हरत विस्तार संज्ञयाह किमप्पथ ॥ ४८७ लक्षमणावती की राजसभा में राजा आम Jain Education Internati१९६२ For Private & Personal Use Only १२०९ www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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