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________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ७५३-७७० ......winrani रखा जाय तो अच्छा है यदि इससे आगे बढ़ना हो तो माघ शुक्ल पूर्णिमा का रखा जाये कि सिन्ध पंजाब और सौराष्ट एवं महाराष्ट प्रान्त के साधु भी आ सकें। इस पर संघ की इच्छा हुई की माघशुक्ल पूर्णिमा का समय रखा जाये तो अधिक लाभ मिल सकता है ! अतः उन्होंने अर्ज की कि पूज्यवर ! सभा का समय माघशुक्लपर्णिमा का ही रखा जाय तो अच्छी सुविधा रहेगी ? सूरिजी ने कहा ठीक है जैसे आपको सुविधा हो वैसा ही कीजिये । श्रीसङ्घ ने भगवान महावीर की जय ध्वनी से सूरिजी के बचन को शिरोधार्य कर अपने कार्य में लग गये । आचार्य श्री के बिराजने से चित्रकोट एवं आस पास के प्रदेश में धर्म की बहुत प्रभावना हुई । बाद चर्तुमास के सूरिजी विहार कर मेदपाट भूमि में खूब ही भ्रमन किया और जहां श्राप पधारे वहां धर्म के उत्कर्ष को खूब बढ़ाया। इधर चित्रकोट के श्रीसंघ अप्रश्वेर ने अपने कार्य को खुब जोरों से आगे बढ़ा रहे थे। नजदीक और दूर २ आमन्त्रण पत्रिकाएँ भिजवा रहे थे और मुनियों को आमन्त्रया के लिये श्रावक एवं आदमियों को भेज रहे थे । इधर भागन्तुओं की स्वागत के लिए खूब ही तैयारियां कर रहे थे जिनके पास बिपुल सम्पति और राज कारभार हाथ में हो वहां कार्य करने में कौनसी असुविधा रह जाती हैं दूसरे कार्य करने वाले बड़े ही उत्साही थे यह पहिले पहल का ही काम था सब के दिल में उमंग थी। __ठीक समय पर सूरिजी महाराज इधर उधर घूमकर वापिस चित्रकोट पधार गये इधर मुनियों के झुण्ड के झुण्ड चित्रकोट की ओर आ रहे थे इसमें केवल उपकेशगच्छ के मुनि ही नहीं पर कोरंट गच्छ कोटी गच्छ और उनकी शाखा प्रशास्त्रा के आस पास में बिहार करने वाले सब साधु साध्वियों बड़े ही उत्साह के साथ आ रहे थे ऐसा कौन होगा कि इस प्रकार जैनधर्म के महान प्रभाविक कार्य से बंचित रह सकें चित्रकोट के श्री संघ ने बिना किसी भेद भाव के पूज्य मुनिवरों का खूब ही स्वागत सत्कार किया जैसे श्रमण संघ आया वैसे श्राह वर्ग भी खुब गहरी तादाद में आये थे उसमें कई नगरों के नरेश भी शामिल थे और उन नरेशों को सहायता से ही धर्म प्रचार बढ़ा और बढ़ता है चित्रकोट का राजा बैरेसिंह यों ही सूरिजी का भक्त था कई बार सूरिजी का उपदेश सुना था जब चित्रकोट में इस प्रकार महामंगलिक कार्य हुआ तो राजा कैसे बंचित रह सके ! बाहर से आये हुये नरेशों की राजा ने अच्छी स्वागत की और भी भाने वालों के लिये राजा की ओर से सब प्रकार की सुविधा रही थी। ठीक समय -अर्थात माघ शुक्ल पूर्णिमा के दिन ागर्य देवगुप्तसूरि के अध्यक्षत्व में विराट सभा हुई उस सभा में कई पांच हजार साधु साध्वियों और एक लक्ष भावुक उपस्थित थे इतनी बड़ी संख्या होने पर भी बातावरण बहुत शान्त था सूरिजी की बुलंद आवाज सबको ठीक सुनाई देती थी ! सूरिजी ने अपने व्याख्यान में जैनधर्म का महत्व और उसकी उपादयता के विषय में फरमाया कि जैन धर्म के स्याद्वार अर्थात् अनेकान्त बाद में सब धर्मों का समावेश हो सकता है अहिंसा सत्य अस्तय ब्रह्मचर्य निस्पृही और परोपकार में किसी का भी मतभेद नहीं हैं अर्थात् यह विश्वधर्म है । इसकी आराधना करने से जीवों का कल्याण होता है ! जन्ममरण के दुखों का अन्त कर सकते हैं पुर्व जमाने में तीर्थकर देवों ने इस धर्म का जोरों से प्रचार किया था परन्तु कलिकाल के प्रभाव से कई प्रान्तों में मुनियों के उपदेश के प्रभाव से पाखंडी लोगों ने धर्म के नाम पर इतना अधर्म बढ़ा दिया कि मांस मदिरा और व्यभिचार में ही हित सुख और मोक्ष मान लिया ! फिर तो दुनियां की वैसी कौनसी कामना शेष रह जाती कि जनता धर्म के नाम पर पुरी नहीं कर सके परन्तु कल्याण हो आचार्य स्वयंप्रभसूरि रत्नप्रभसूरि श्रादि का कि उन्होंने हजारो सकटों चित्रकोट में श्रमण सभा ] ७८५ Jain Education Sational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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